डॉ संतोष राय इंस्टीट्यूट द्वारा एक दिवसीय प्रेरणा एवं व्यक्तित्व विकास कार्यशाला का आयोजन
भिलाई। अहिवारा के एक छोटे से गांव संडी की बेटी सीपी दुबे ने साबित कर दिया कि बेटियां भी किसी से कम नहीं। माता-पिता की प्रेरणा, अदम्य इच्छा शक्ति और कड़ी मेहनत से उन्होंने असाधारण सफलताएं अर्जित कीं और समाज की सोच बदलने में भी सफल रहीं। सीएसवीटीयू में कम्प्यूटर साइंस की पहली डीन बनी डॉ सीपी दुबे ने चार साल पहले नौकरी को अलविदा कह दिया और उद्यमी बनकर गारमेन्ट सेक्टर में कदम रखा। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए उन्होंने स्वयं को स्थापित कर लिया।डॉ सीपी यहां डॉ संतोष राय इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित एक दिवसीय प्रेरक एवं व्यक्तित्व विकास कार्यशाला को संबोधित कर रही थीं। अन्य वक्ताओं में ची-रनर डॉ आलोक दीक्षित और सफल उद्यमी अमित श्रीवास्तव शामिल थे। कार्यशाला का संचालन कॉमर्स एंड मोटिवेशन गुरू डॉ संतोष राय कर रहे थे।
डॉ सीपी दुबे ने बताया कि उनका जन्म 1974 में तब हुआ जब बेटियों का उस तरह से स्वागत नहीं होता था जैसा कि बेटों का। उनके घर तो केवल बेटियां ही थीं और वह भी तीन। जो भी आता वह पिता को यही सलाह देता कि वह अपने भाइयों के बेटों से बनाकर रखें क्योंकि बुढ़ापे में वही सहारा बनेंगे। पर पिता इस सलाह को अनसुना कर देते। उन्हें अपनी बेटियों पर नाज था। उन्होंने तीनों बेटियों की परवरिश बेटों की तरह ही की। कटे बाल, पैंट शर्ट पहनकर उनकी बेटियां बेटों की तरह ही पलीं। सीपी ने जहां नागपुर विश्वविद्यालय से बीटेक किया वहीं उनकी बहन रविशंकर विश्वविद्यालय की छात्रा थीं। दोनों बहनें नेशनल लेवल पर टेनिस खेलती थीं। एक बार दोनों बहनें नेशनल में खिताब के लिए आमने-सामने खेलती भी नजर आईं।
डॉ सीपी बताती हैं कि उन्होंने बेटियों को लेकर प्रचलित मान्यताओं को चुनौती दी और अपने लक्ष्य को सामने रखकर आगे बढ़ती रहीं। जब उनके पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए नागपुर भेजा तो लोगों का कहना था कि बेटी को इतनी छूट देना अच्छा नहीं है। क्या पता वह डिग्री लेकर लौटे या वहीं से लव मैरिज कर भाग जाए। पर सीपी ने उन्हें गलत साबित किया। वे न केवल बीटेक की डिग्री लेकर लौटीं बल्कि इसके बाद एमटेक भी किया और फिर पीएचडी भी की। कम्प्यूटर साइंस में पीएचडी करने वाली वे पहली विद्यार्थी थीं। इके बाद उन्होंने संतोष रूंगटा समूह में कम्प्यूटर साइंस विभाग की जिम्मेदारी संभाली। सीएसवीटीयू ने उन्हें डीन बना दिया। वैसे तो डीन का कार्यकाल 2 साल का होता है पर उन्हें यह जिम्मेदारी तीन बार, मतलब पूरे छह साल तक निभानी पड़ी।
डॉ सीपी बताती हैं कि अध्यापन काल में ही वे उद्यमिता के लिए प्रेरित हुईं। वे महिलाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए कुछ करना चाहती थीं। 2013-14 में उन्हें दिल्ली में आयोजित एक उद्यमिता कार्यशाला में भाग लेने का मौका मिला। उन्होंने रेडीमेड गारमेन्ट का प्रशिक्षण लिया और लौटकर नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
महिला उद्यमी के लिए उद्यमिता की राह आसान नहीं थी। जब वे मशीनें खरीदने के लिए लुधियाना पहुंची तो उन्हें बताया गया कि इन मशीनों को महिलाएं नहीं चला पाएंगी। पर वे रुकी नहीं। मशीनें और कच्चा माल लेकर वे अहिवारा लौट आईं। यहां डेढ़ एकड़ के प्लाट पर उन्होंने अपनी फैक्टरी शुरू की और चार महिलाओं को काम पर रख लिया।
डॉ सीपी बताती हैं कि यह एक बदली हुई परिस्थिति थी। नौकरीपेशा जीवन में उन्हें प्रतिमाह अपने बैंक खाते में वेतन प्राप्त करने की आदत थी। अब न केवल वेतन बंद हो चुका था बल्कि यह जिम्मेदारी अलग थी कि चार लोगों को प्रतिमाह वेतन देना है। उन्होंने काम शुरू किया। आरंभिक दिनों में थोड़ी दिक्कत हुई, कपड़ा खराब हुआ, नुकसान भी हुआ पर वे इसे अनुभव मानते हुए आगे बढ़ती गर्इं।
उन्होंने बताया कि माल तैयार कर लेना आसान था। असली चुनौती तो उसे बेचने की थी। वे 40 वर्ष की थीं। जब सूटकेस में सैम्पल लेकर दुकानों में जातीं तो पहला सवाल उनके पति को लेकर होता। जब वे बतातीं कि उनके पति बीएसपी में हैं तो उनकी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह की होती कि पति कमा रहे हैं तो इस उम्र में यह सब झमेला क्यों? बहरहाल वे मन लगाकर अपना काम करती रहीं।
समय के साथ उनका माल बिकने लगा। बिलासपुर, रायगढ़ सहित दूर-दूर तक उनके बनाए कपड़े जाने लगे। पर इससे उस समय के स्थापित कपड़ा कारोबियों में हलचल शुरू हो गई। उनका प्रदेश व्यापी संगठन था। वे सभी ट्रेडर थे। अपने व्यवसाय में एक महिला मैन्यूफैक्चरर की इंट्री उन्हें अच्छी नहीं लगी। उन्होंने एक साथ यह फैसला कर लिया कि महिला उद्यमी का माल नहीं बेचना है। और एक दिन पूरे प्रदेश से माल वापस उनकी फैक्टरी के दरवाजे पर लौटकर डंप हो गया। वे सीढ़ियों पर अकेली बैठी कपड़े के इन गट्ठरों को बस निहारती रह गईं। लगभग एक घंटे बाद वे एक नए संकल्प के साथ उठीं।
उन्होंने ओडीशा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश में अपना माल बेचने का फैसला कर लिया था। एक बार फिर सूटकेस में सैम्पल लेकर उन्होंने मार्केटिंग शुरू की और काम एक बार फिर चल पड़ा। उन दिनों छत्तीसगढ़ में रह रही सीआरपीएफ, आईटीबीपी की बटालियनों के लिए वर्दियां बाहर से आती थीं। उन्होंने इस क्षेत्र में कोशिश की और यह काम उन्हें मिल गया। इसके साथ ही सुमित बाजार में भी उनका माल बिकने लगा।
चुनौतियां अब भी हैं पर वे ठंडे दिमाग से उसका मुकाबला कर रही हैं। इस बीच कम्पनी का टर्नओवर बढ़ा है। स्थापित उद्योगपतियों के बीच उनकी जगह बन रही है। जिस गांव में कभी लोग तीन बेटियों के पिता पर तरस खाते थे, अब उसी गांव में सात बेटियों का नाम सीपी है। अब परिस्थितियां भी बदल गई हैं। अब बेटियों का जन्म भी सेलिब्रेट किया जाता है। दोनों की परवरिश में कोई फर्क नहीं रहा। बेटियों को चाहिए कि वे अपना माइंडसेट बदलें और अपनी पूरी क्षमता के साथ आगे आएं। सफलता उनके कदम चूमेंगी।