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डिग्रियों की अंधी दौड़ और अनिर्णय की स्थिति

Sep 24, 2022
Is dual degree of any use

डिग्रियों से अब नौकरियां नहीं मिलतीं. पढ़ाई कुछ भी करो, नौकरियां तो वही हैं जो किसी को भी दी जा सकती है. जो कंपनियां पहले सिर्फ इंजीनियरिंग कालेजों का रुख करती थीं, अब वे डिग्री कालेजों से होते हुए ग्रामीण क्षेत्र के कालेजों में प्लेसमेंट कैम्प लगा रही हैं. मतलब साफ है कि अधिकांश डिग्री कोर्स केवल पीजी करने के लिए डिजाइन किये गये हैं. पीजी करने के बाद भी कुछ मिल ही जाएगा, इसकी संभावना कम ही रहती है. कुछ लोग दो-दो, तीन-तीन पीजी करने के बाद भी बेरोजगार घूम रहे हैं. अब सरकार ने एक साथ दो पाठ्यक्रमों की इजाजत दे दी है. इसमें एक डिग्री के साथ एक डिप्लोमा किया जा सकेगा. शर्त केवल यही होगी कि एक ही समय पर दोनों की क्लास न हो. दोनों की टाइमिंग अलग-अलग होनी चाहिए. एक ऑफलाइन तो दूसरा ऑनलाइन हो सकता है. वैसे इस प्रावधान की कोई जरूरत नहीं थी. देश की शिक्षा व्यवस्था काफी समय से ड्यूअल मॉडल पर चल रही है. कालेज तो कालेज, 11वीं-12वीं के बच्चों का भी यही हाल है. नीट, जेईई की तैयारी कर रहे बच्चे स्कूलों से गायब रहते हैं. छत्तीसगढ़ में तो इस प्रावधान का कोई मतलब ही नहीं है. यहां कालेज और कोचिंग का टाइम एक ही होता है. बच्चों का एडमिशन कालेज में भी होता है और कोचिंग में भी. बच्चे अपनी खुशी से कभी इधर तो कभी उधर चले जाते हैं. ऐसे बच्चे एक साथ दो डिग्री करें या तीन, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. अटेंडेंस की कोई समस्या नहीं होती. लिहाजा, उच्च शिक्षा विभाग और कॉलेज कितने भी प्रोग्राम चलाएं, बच्चे इसके लाभ से वंचित ही रहते हैं. पहले ईवनिंग कालेज का कंसेप्ट था. कामकाजी लोग इसका लाभ उठाया करते थे. भिलाई इस्पात संयंत्र की ही बात करें तो मैट्रिक पास करके आए हजारों लोगों ने नौकरी करते हुए ही स्नातक की उपाधि प्राप्त की. कोई होड़ नहीं थी डिग्री या सर्टिफिकेट कबाड़ने की. लोग अप्रेंटिस भरती होते थे और आपरेटर से लेकर चार्जमैन तक बन जाते थे. काम करते-करते ही काम सीखते थे. गले में डिग्रियों की माला नहीं होती थी पर हाथों में हुनर होता था. सीए सहित कुछ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में आज भी यही पद्धति अपनाई जाती है. अच्छा होता डिग्री की दुकान खोलने की बजाय यूजीसी अप्रेंटिस प्रणाली को विकसित करने की दिशा में काम करती. स्नातक के दूसरे या तीसरे साल में कम से कम चार माह की अप्रेंटिसशिप को अनिवार्य कर दिया जाता. इन विद्यार्थियों का लाभ निजी उद्योगों, उपक्रमों के साथ ही सरकार भी अपनी योजनाओं के प्रचार, प्रसार, निगरानी या क्रियान्वयन में कर पाती. विद्यार्थियों को उनके भावी जीवन के लिए तैयार करने में इसकी एक बड़ी भूमिका हो सकती थी. डिग्री और सर्टिफिकेट की दुकानों का तो यह आलम है कि पीजी करने के बाद भी नहीं समझ में आता कि करना क्या है.

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