माना कि राजनीति में बतौलेबाजी का बड़ा महत्व है. बातों से ही माहौल बनता बिगड़ता है. लोग बातों में उलझे रह जाते हैं और नेता चुपके से उनकी जेब काट लेते हैं. बहुसंख्य हिन्दू आबादी को हिन्दू राष्ट्र का सपना दिखाया गया. वैमनस्य के बीज बोए गए. चुनावी ऊंट ने करवट भी बदला पर देश वैसा ही रहा, जैसा कि वह पहले था. 1843-44 में प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने धर्म को जनता का अफीम बताया था. राममंदिर के बहाने यही अफीम हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण करता रहा. नई सरकार की नीतियों की तारीफें तो खूब हुईं पर उनका जमीनी प्रभाव दिखना अभी बाकी है. भाजपा के एक कद्दावर नेता ने कहा है कि “छत्तीसगढ़ियों के भाग्य में सिर्फ गोबर चुनना ही लिखा है.” दरअसल, छत्तीसगढ़ में भाजपा डायबिटीज का शिकार है. इसे रईसों की बीमारी माना जाता है. डायबिटीज का एक दुष्प्रभाव यह भी है कि आंखों की रौशनी चली जाती है. भाजपा की डायबिटीक आंखें आत्मानंद स्कूलों के विस्तार को नहीं देख पा रही. कृषि विश्वविद्यालय और कृषि विज्ञान केन्द्रों की बढ़ती संख्या उन्हें नहीं दिख रही. कृषि वैज्ञानिकों के दोगुने उत्साह वे नहीं भांप पा रहे. महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का फैलता जाल उन्हें दिखाई नहीं दे रहा. वे देख पाते तो उन्हें भी वह दिखाई देता जो केन्द्र को दिखाई दे रहा है. भाजपा नेता अजय चंद्राकर कहते हैं कि भूपेश सरकार छत्तीसगढ़ियों की शिक्षा के खिलाफ है. वह उन्हें गोबर में उलझा रही है. यह उस पार्टी का नेता कह रहा है कि जिसका राष्ट्रीय नेतृत्व नौकरी की बजाय उद्यमिता पर जोर दे रहा है. जो सेना में भी एप्रेंटिस भर्ती कर रहा है. अजय चंद्राकर उस गाय का मजाक बना रहे हैं जिसपर उनकी पूरी नहीं तो आधी राजनीति तो टिकी ही हुई है. सनातन धर्म कहें या हिन्दुत्व, मेरे लिये दोनों का मतलब एक ही है, गाय के साथ ही पंचगव्य का भी महत्व है. पंचगव्य में दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र का समावेश होता है. बिना गोबर के शुद्धिकरण संभव नहीं. काश! गोबर में नजर और विचारों को भी शुद्ध करने की क्षमता होती. बहरहाल, बात हो रही थी बतौलेबाजी की. अच्छे और चुटीले वक्ताओं की पूछपरख हर जगह होती है. झुण्ड चाहे गांव के तालाब के किनारे बेकार बैठे युवकों का हो या ठाकुर की बैठक में चाटुकारों का, एक बोलता है और बाकी सब चटखारा लेते हैं. हास्य पैदा करने की चुल में लोग एक दूसरे की बेइज्जती तक करने लगते हैं. फिर धीरे-धीरे यही स्वभाव बन जाता है. कभी केजरीवाल की खांसी का मजाक बना देते हैं तो कभी राहुल की मासूमियत को मुद्दा बना लेते हैं. घर में सही संस्कार मिलते तो कोई भी ऐसा करने का दुस्साहस नहीं करता. हमारे यहां यह मान्यता है कि जो लोग दूसरों की शारीरिक दुर्बलता का मजाक उड़ाते हैं उनका अपना बुढ़ापा उससे भी बदतर होता है. यही कारण था कि हमने विकलांगों को दिव्यांग कहना शुरू किया. पर आत्ममुग्ध नेताओं को कौन समझाए?