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कहीं भी सुरक्षित नहीं है नारी

Nov 24, 2014

deepak das, neelam jaiswal, neeta kamboj, dn sharma, muktakantha sahitya samiti, satish chowhanभिलाई। पूरे विश्व में नारी कहीं भी सुरक्षित नहीं है। पग-पग पर वह प्रताडि़त होती आ रही है, उसपर अत्याचार होते रहे हैं। कभी पिता, कभी पति तो कभी भाई के संरक्षण में ही उसका जीवन व्यतीत हो जाता है। उसे दोयम दर्जे की नागरिक समझा जाता है। हमें यह सामंती सोच बदलनी होगी। Read More
यह उद्गार मुक्तकंठ साहित्य समिति द्वारा नारी के अस्तित्व और उसकी सुरक्षा पर आयोजित परिचर्चा को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए सुश्री शानू मेनन ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि स्त्री की सुरक्षा का तात्पर्य केवल उसकी शारीरिक सुरक्षा से नहीं अपितु पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक और स्वास्थ्य की सुरक्षा से है।
satish chowhan, neeta kamboj, muktakantha sahitya samitiमुक्तकंठ साहित्य समिति के अध्यक्ष सतीश चौहान ने बिलासपुर नसबंदी शिविर हादसे का जिक्र करते हुए परिचर्चा का शुभारंभ किया। उन्होंने कहा कि परिवार की देखभाल से लेकर बच्चों की परवरिश यहां तक कि सरकारी कार्यक्रमों के लिए भी उसे बलि का बकरा बनाया जाता है। परिवार नियोजन का टारगेट पूरा करने के लिए गरीब और अशिक्षित महिलाओं को प्रलोभन देकर लाया गया और लापरवाहियों का रिकार्ड तोड़ते हुए उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया गया। नारी को सिर्फ एक शरीर और संतानोत्पत्ति का जरिया मानने की यह सोच हमें बदलनी होगी। उन्होंने व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने में संकोच करने की मनोवृत्ति को नारी की मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया।
परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रतिष्ठित पत्रकार प्रशांत कानस्कर ने कहा कि आज भी अधिकांश घरों में पुरुष ही कमाऊ सदस्य है। उसके स्वास्थ्य की सुरक्षा करते हुए ही संभवत: नारी ने यह जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली है। हमें यह जागरूकता लानी होगी कि पुरुष की नसबंदी कहीं ज्यादा आसान और सुरक्षित है।
वहीं कवि आर सी मुदलियार ने कहा कि हालांकि चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी स्थिति मजबूत की है किन्तु इसे और आगे बढ़ाने की जरूरत है।
वरिष्ठ पत्रकार दीपक रंजन दास ने कहा कि पिछले कुछ दशकों में बच्चों की परवरिश से हमारा ध्यान हटा है। एकल परिवारों की संख्या बढ़ी है। कामकाजी माता पिता की संतानों के सिर पर न तो परिवार के बुजुर्गों का साया है और न ही माता पिता के पास उनके लिए फुरसत। वे दोस्तों, टीवी, इंटरनेट और अन्य संचार माध्यमों के हवाले है। इससे संस्कार कमजोर हुए हैं और स्वेच्छाचारिता, मांगने, छीनने और जिद करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसीके दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे हैं। इसे बदलने के लिए बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी किसी को तो लेनी होगी।
साहित्यकार सत्यवान नायक ने कहा कि वे खूंटे से बंधा साहित्य पसंद नहीं करते। साहित्यकार की भूमिका न्यूट्रल अम्पायर की तरह होनी चाहिए। हमें अपने चरित्र में मजबूती लाकर नारी की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेनी होगी क्योंकि नारी का अस्तित्व संकट में आया तो पूरी मानव जाति ही संकट में आ जाएगी। महिलाओं की सुरक्षा की सबसे बड़ी जिम्मेदारी पुरुषों पर तथा इसके बाद स्वयं महिलाओं पर है।
रायपुर से पधारे तेजपाल सोनी ने जहां कविता के माध्यम से नारी की विडंबना तथा उसकी पीड़ा को व्यक्त किया वहीं एमएल वैद्य ने कहा कि महिला को आज सबसे बड़ा खतरा घर के अंदर है। रिश्तेदारों से लेकर अपने ही भाई और पिता तक से वह सुरक्षित नहीं है। हमें आत्मचिंतन करना होगा। नरेन्द्र देवांगन ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि आज महिलाओं की सुरक्षा को सबसे ज्यादा खतरा घर के भीतर ही है। परिवार के पुरुष अपनी संकीर्ण मानसिकता बहन बेटियों पर थोप रहे हैं। पत्रकार ईश्वर दुबे ने महाभारत का जिक्र करते हुए कहा कि तब भी द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था और लोग बैठे देख रहे थे। स्थिति आज भी नहीं बदली है। सड़कों पर महिलाओं का अपमान होता है और हम चुपचाप देखते रहते हैं। हमें यह स्थिति बदलनी होगी तथा ऐसी घटनाओं में तत्काल हस्तक्षेप करना होगा।
नारी होने की पीड़ा को अपनी कविता में अभिव्यक्त करते हुए नीलम जायसवाल ने कहा कि मायका और ससुराल दो-दो घर का सपना दिखाकर नारी को छला जाता है जबकि हकीकत यह है कि विवाह के बाद न तो वह इस घर की बेटी रह जाती है और न ही उस घर में पूरी तरह स्वीकार की जाती है। कन्या भ्रूण हत्या को पूरा मानवता के लिए खतरा बताते हुए उन्होंने कहा कि घर में कन्या नहीं होगी तो घर-घर और आंगन आंगन न होगा। नारी का अस्तित्व मिटा तो स्वयं पुरुष का अस्तित्व मिट जाएगा।
मुक्तकंठ साहित्य समिति के महासचिव एवं अधिवक्ता ओमप्रकाश शर्मा ने नारी सुरक्षा के विभिन्न कानूनी पहलुओं की चर्चा करते हुए कहा कि पिछले कुछ दशकों में अनेक ऐसा व्यवस्थाएं बनी हैं जो उन्हें अधिकार सम्पन्न बनाती हैं किन्तु इसकी जानकारी अधिकांश को नहीं है। हमें इस क्षेत्र में जागरूकता लानी होगी तथा महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में बताना होगा। इससे उसके शोषण की घटनाएं कम होंगी।
वहीं दों पंक्तियों में अपनी बात रखते हुए कवयित्री नीता काम्बोज ने समाज को चेतावनी दी -‘देखो यह न समझो कि हम सिर्फ बाला हैं, हैं आग लगा सकती जलती हुई ज्वाला हैं।
समाज सेवी मनोरमा सिंह ने कहा कि समाज दरकने लगा है। आज बच्चे मां को मां, बहन को बहन और पिता को पिता का सम्मान नहीं देते। हमें बच्चों को संस्कार देने होंगे। पड़ोस की सुध लेनी होगी तथा प्रभावी हस्तक्षेप करना होगा। इससे अपराधियों के हौसले पस्त होंगे और स्थिति में सुधार आएगा।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में विषय पर अपने सारगर्भित विचार रखते हुए प्राध्यापक देवेन्द्र नाथ शर्मा ने कहा कि नारी की स्थिति बदलने की पूरी जिम्मेदारी समाज पर है। देश में असमानता की खाई कुछ ज्यादा ही चौड़ी है। अमीर बहुत अमीर है तो गरीब बहुत गरीब। यह अतिवादिता महिला की स्थिति में भी है। ग्रामीण क्षेत्रों में 65 फीसदी महिलाएं रक्ताल्पता की शिकार हैं। गर्भावस्था में यह आंकड़ा 80 फीसदी तक चला जाता है। ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चे भी रक्ताल्पता का शिकार होते हैं। कमजोर बालक की अच्छी परवरिश होती है जिससे उसकी स्थिति संभल जाती है किन्तु बालिका पर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते और वह कमजोर ही रह जाती है। हमें अपने दिमाग से इस असमानता को निकालना होगा, तभी नारी की स्थिति सुधर सकेगी। परिचर्चा को डॉ संजय दानी, डॉ नरेन्द्र देवांगन ने भी संबोधित किया। अंत में धन्यवाद ज्ञापन श्रीमती निर्मला चौहान ने किया।

कन्या भ्रूण हत्या
muktakantha sahitya samiti, neelam jaiswalऔरत कोई जन्तु नहीं, न कोई दूजी प्रजाति
मानव है वह मानव का वंश वही है चलाती
कन्या को भ्रूण में मारते हो, कब बात समझ ये पाओगे
बेटियों को मारने वालों, क्या बेटों का पकाया खाओगे?
औरत को कमजोर समझ, कब तक जुल्म ये ढाओगे
न बेटी की किलकारी होगी, न पायल की छनक सुन पाओगे
बेटी होगी न दुनिया में, क्या दोस्ताना सेकण्ड बनाओगे
बहु पत्नी प्रथा चलाते थे, एक पत्नी को तरस जाओगे
अब भी न समझे तो कुंवारे ही मर जाओगे
प्रतिशत कितनी भी कम हो जाए आधी आबादी कहलाऊंगी
गर मुझे खत्म किया तुमने, तुम सब को समेट ले जाऊंगी
जिस दिन नारी नष्ट हो गई अपनी उलटी गिनती गिन जाओगे
बिन अर्धांगिनी के हे पुरुष, तुम आधे ही रह जाओगे
– नीलम जायसवाल
विवाहिता की व्यथा
मेरे इतने अच्छे भाग्य नहीं कि शादी के बाद भी
मेरे मां बाप मेरी फिक्र करें
और
मेरे इतने भाग्य भी नहीं कि मेरे ससुराल वाले
मुझे अपना समझें
कहते हैं बेटियों के दो-दो घर होते हैं
किन्तु
रानी का झांसा देकर मुझको नौकर बना दिया
दो घरों का सपना दिखाकर बेघर बना दिया
-नीलम जायसवाल

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