दलजीत नागी/पिछले दिनों विचाराधीन कैदियों का मसला तब सुर्खियों में आया, जब एमनेस्टी इंटरनेशनल ने देश की अलग-अलग जेलों का अध्ययन कर बताया कि भारत में 65 फीसदी से ज्यादा कैदी विचाराधीन मामलों में बंद हैं। उसने विचाराधीन कैदियों की संख्या के मामले में भारत को दुनिया के 10 सबसे ‘खराबÓ देशों में शामिल किया है। वर्ष 2012 तक उपलब्ध राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, जेलों में 2.5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी हैं, और उनमें से कई लंबे समय से इसीलिए बंद हैं, क्योंकि एक नियत समय के बाद उन्हें रिहा करने का तंत्र अभी तक हमारी जेल प्रणाली विकसित नहीं कर पाई है।
दरअसल इस मामले में कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (धारा 436 ए) बिल्कुल स्पष्ट है, जो बताती है कि ऐसे सभी अपराधों में, जिनमें मौत की सजा नहीं दी जाती हो, अगर बंदी ने अपने अपराध की आधी से अधिक सजा काट ली हो, तो उसे तत्काल रिहा किया जाना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 39 ए के अंतर्गत कानूनी सहायता के अधिकार को जीवन के बुनियादी अधिकार का हिस्सा माना गया है। मगर अब भी बेहतर कानूनी सहायता तक पहुंच का मामला हाशिये पर पड़े लोगों के लिए मृग मरीचिका बना हुआ है। इसे संयोग कहा जाना चाहिए कि एमनेस्टी की रिपोर्ट आने के चंद रोज बाद सर्वोच्च अदालत में भी इस मसले पर बात चली, जिसमें ज्यादा ध्यान जेलों में लंबे समय से रह रहे 36,000 विचाराधीन कैदियों पर था। वे कैदी आदिवासी तबके से जुड़े थे। देश की विभिन्न जेलों में बिखरे विचाराधीन श्रेणी में शुमार आदिवासियों के बारे में अदालत ने सरकार को लताड़ते हुए कहा कि आप मूक दर्शक न बनें और ठोस पहल करें।
वैसे यह मसला कोई पहली बार सुर्खियां में नहीं आया है। जब के जी बालकृष्णन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे, तब भी यह चर्चा में रहा। उस वक्त कयास लगाए जा रहे थे कि कथित अपराध के लिए तयशुदा आधी से अधिक सजा काटने वाले विचाराधीन कैदियों को निजी मुचलके पर रिहा करने का सिलसिला जल्दी शुरू होगा। मगर इस मामले में गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी। बताया यह भी जाता है कि उपनिवेश काल में ही बने ‘प्रिजन्स ऐक्टÓ बदलने के लिए सरकार की तरफ से एक मॉडल जेल मैन्युअल बनाकर विभिन्न राज्यों को भेजा गया था, लेकिन आज तक न राज्य सरकारों ने इस मामले में कोई दिलचस्पी ली, और न ही केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से पहल की।
विचाराधीन कैदियों को दोषसिद्ध मानने और न्यायोचित मुकदमे के संविधानप्रदत्त अधिकार से भी उन्हें वंचित करने की एक समानांतर प्रक्रिया नागरिक समाज के असहिष्णु तबके की तरफ से भी तेज होती दिखी है। जिन मामलों में पूर्वाग्रहों के चलते अधिकतर अल्पसंख्यकों को अभियुक्त बनाया जाता है, उनमें हम इससे रूबरू होते हैं। मगर विडंबना यही है कि मुल्क के कर्णधारों के एजेंडे में यह सवाल अब तक नहीं आया है। अगर वक्त रहते इसका जवाब नहीं ढूंढा गया, तो महज आरोपों के मढ़े जाने के बाद विचाराधीन कैदियों और दोषसिद्ध अपराधियों के बीच की धुंधली-सी सीमारेखा और धूमिल होती जाएगी।