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दुर्ग विश्वविद्यालय में प्रकृति की उपासना के प्रभाव पर कार्यशाला

Dec 24, 2017

दुर्ग। जनजातियों द्वारा की जाने वाली प्रकृति की पूजा से न केवल आदमी को अपनी लघुता का एहसास होता है अपितु हमारे अंहकार का भी हनन होता है। ये उद्गार दुर्ग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी भारतीय संास्कृतिक धारा- अनादि से आजतक के उद्घाटन समारोह में आमंत्रित वक्ताओं ने व्यक्त किये।  बीआईटी दुर्ग के सभागार में बड़ी संख्या में उपस्थित जनजातीय प्रतिनिधियों एवं प्राध्यापकों तथा शोधकर्ताओं को संबोधित करते हुये उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष श्री जगदेवराम उरांव ने कहा की आदिवासी समाज एवं जनजातियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति है।दुर्ग। जनजातियों द्वारा की जाने वाली प्रकृति की पूजा से न केवल आदमी को अपनी लघुता का एहसास होता है अपितु हमारे अंहकार का भी हनन होता है। ये उद्गार दुर्ग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी भारतीय संास्कृतिक धारा- अनादि से आजतक के उद्घाटन समारोह में आमंत्रित वक्ताओं ने व्यक्त किये।  बीआईटी दुर्ग के सभागार में बड़ी संख्या में उपस्थित जनजातीय प्रतिनिधियों एवं प्राध्यापकों तथा शोधकर्ताओं को संबोधित करते हुये उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष श्री जगदेवराम उरांव ने कहा की आदिवासी समाज एवं जनजातियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति है। दुर्ग। जनजातियों द्वारा की जाने वाली प्रकृति की पूजा से न केवल आदमी को अपनी लघुता का एहसास होता है अपितु हमारे अंहकार का भी हनन होता है। ये उद्गार दुर्ग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी भारतीय संास्कृतिक धारा- अनादि से आजतक के उद्घाटन समारोह में आमंत्रित वक्ताओं ने व्यक्त किये।  बीआईटी दुर्ग के सभागार में बड़ी संख्या में उपस्थित जनजातीय प्रतिनिधियों एवं प्राध्यापकों तथा शोधकर्ताओं को संबोधित करते हुये उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष श्री जगदेवराम उरांव ने कहा की आदिवासी समाज एवं जनजातियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति है।प्रकृति की उपासना के साथ-साथ जनजातियां अन्य देवी देवताओं की भी उपासना करती हैं। आज शिक्षित समाज ने अपने स्वार्थ के खातिर जनजाति के लोगों एवं आम अन्य जातियों के मध्य दूरियां पैदा कर दी है। युवा पीढ़ी को गहन अध्ययन के माध्यम से वास्तविकता को सामने लाकर जनजातियों के उत्धान हेतु प्रयास करना चाहिए। जनजातियों की परम्पराओं एवं रीतिरिवाज की सही व्याख्या की आवश्यकता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये प्रसिद्ध समाजसेवी श्री बिसराराम यादव ने कहा कि भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार है। जनजातियां प्राचीन संस्कृति की वाहक हैं। व्यक्तित्व, सृष्टि एवं समष्टि प्रमुख है। समाज से अच्छी कोई पाठशाला नहीं। अनेक जनजातियां होने के बावजूद उनमें अनेक समानतायें है। उद्घाटन समारोह के प्रारंभ में डॉ. के. पद्मावती द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना के पश्चात मंचस्थ अतिथियों का स्वागत दुर्ग विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एन. पी. दीक्षित ने किया। कार्यक्रम के संचालन डॉ. शकील हुसैन ने राष्ट्रीय संगोष्ठी के विषय की महत्ता पर प्रकाश डाला। अपने स्वागत भाषण में कुलपति डॉ. दीक्षित ने जनजातियों को निश्छल, ईमानदार एवं संतोषी बताया। डॉ. दीक्षित ने कहा कि हमें जनजातीय संस्कृतियों से सीखना चाहिए। उद्घाटन समारोह में धन्यवाद ज्ञापन संगोष्ठी के संयोजक डॉ. अनिल पाण्डेय ने किया।
आज आयोजित प्रथम तकनीकी सत्र में हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला के कुलपति डॉ. कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री ने अपने रोचक व्याख्यान में बताया की भारतीय संस्कृति का अनवरत चलना ही सबसे बड़ी विशेषता है। महात्मा गांधी की इरान में प्रतिष्ठा की जिक्र करते हुये डॉ. अग्निहोत्री ने कहा कि हमें अपने स्वयं के स्त्रोतों से इतिहास को जानने का प्रयास करना चाहिए। परन्तु यह बड़ी विडम्बना है कि हम विदेशी स्रोतों पर ज्यादा विश्वास करते है। अंग्रेजों ने विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से भारतीयों की एकता को खंडित करने का प्रयास किया है तथा ऐसी कमियों का उल्लेख किया है जिसमें भारतीयों का नियंत्रण नहीं है जैसे- गर्म जलवायु, प्राकृति संसाधन आदि। प्रत्येक जनजाती की भाषा अलग है परन्तु संदेश सभी में एकता व अंखडता का है। अंग्रेज जिन देशों में गये वहां के लोगों को ट्राइब निरूपित कर उनकी उपेक्षा करते रहे है। अंग्रेजों ने भ्रामक प्रचार कर जनजातियों की मूल भावना को विरूपित किया है। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुये श्रीकांत काटदरे ने कहा कि प्राकृति से ऊपर जाना संस्कृति तथा नीचे जाना विकृति है। हमें अपनी सांस्कृतिक निरंतरता को बनाये रखना होगा। साथ ही प्रो. अनिल कुमार पाण्डेय जी द्वारा भारतीय संस्कृति का प्रभाव विषय पर पावर प्वाईन्ट प्रजेंटेशन दिया गया।
तृतीय तकनीकी सत्र में दिल्ली से पधारे प्रसिद्ध वक्ता प्रोफेसर हनीफ खान शास्त्री ने बड़े ही अच्छे ढग़ से वेदों एवं कुरान के आपसी सहसंबंध की व्याख्या की। हनीफ खान शास्त्री ने कहा कि ईश्वर ने समाज के नियमावली बनायी है जिसका पालन करना हमारा धर्म है। विश्व के सभी बड़े साहित्य प्रकृति की गोद में अर्थात् जंगलों में लिखे गये हैं। श्री शास्त्री ने कहा कि गीता एवं कुरान में लगभग 3500 साल का अन्तराल होने के बाद भी मूल तत्वों में काफी समानता है। दोनों ग्रंथों की मूल आत्मा समान है। दोनों में मानवता का संदेश है। भारत से ही विश्वज्ञान की उत्पति हुई है अत: यह हमारा दायित्व है कि पूरे विश्व में समरसता का भाव फैलायें। इस्लाम का मुख्य अर्थ समर्पण होता है अर्थात् अपने मालिक के आगे स्वयं को समर्पित कर देना। मुस्लिम का अर्थ होता है आज्ञाकारी। प्रोफेसर शास्त्री ने गीता एवं कुरान के सहसंबंध से सबंधित अनेक रोचक उदाहरण दिये। माँ शब्द का विस्तार से विश्लेषण करते हुये उन्होने माँ की महत्ता का वर्णन किया। इस सत्र की अध्यक्षता भारतीय इंजिनियरिंग सेवा के अधिकारी तथा रक्षा मंत्रालय में पदस्थ उपनिर्देशक लक्ष्मण सिंह मरकाम ने की।
जनजातीय प्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत तकनीकी सत्र में श्री जमधर नेताम ने वनवासी समाज के देवी देवता, श्री रमेश हिडामे ने गोड़ समाज के रीतिरिवाज एवं धार्मिक मान्यता तथा श्री डी. एस. बघेल ने भतरी जनजाती के पराम्परिक गीतों पर अपने विचार व्यक्त किये गये। कल संगोष्ठी के दूसरे दिन शाम 4 बजे समापन समारोह के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाती आयोग के अध्यक्ष श्री नंद कुमार साय होंगे। इससे पूर्व आयोजित होने वाले तकनीकी सत्रों में रक्षा मंत्रालय के उपनिर्देशक लक्ष्मण सिंह मरकाम अपनी प्रस्तुति देंगे। प्रस्तुति देने वाले अन्य वक्ताओं में श्री लखन लाल कलामे, आदिवासी समाज के संस्कार तथा श्रीमती अंजनी मरकाम जनजाती विवाह के गीत पर अपनी प्रस्तुति देंगी। द्वितीय तकनीकी सत्र में मुरिया जनजाति के मृतक संस्कार पर उर्गेश मरकाम तथा हल्बा समाज के संस्कार पर झरीराम सलामें अपना व्याख्यान देगें ।
आज आयोजित संगोष्ठी के प्रथम दिन प्रमुख रूप से उपस्थित लोगों में दुर्ग विश्वविद्यालय, दुर्ग के कुलसचिव डॉ. एस. के. त्रिपाठी, श्री संतोष परांजपे, डॉ. रक्षा सिंह, प्रो. विकास पंचाक्षरी, डॉ. हंसा शुक्ला, डॉ. अरविन्द शुक्ला, डॉ. प्रशांत श्रीवास्तव, डॉ. अनिल कश्यप, डॉ. जी. एस. ठाकुर, डॉ. ललित वर्मा, डॉ. नीरजा रानी पाठक, डॉ. अलका मिश्रा, डॉ. अनिल श्रीवास्तव, डॉ. संजय दास, डॉ. अनुपमा कश्यप, डॉ. अमरनाथ शर्मा, डॉ. संतोष सार, संध्या मदन मोहन श्रीवास्तव सहित अनेक गणमान्य नागरिक एवं प्राध्यापक उपस्थित थे।

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