भिलाई। अपने और अपनों के लिए तो सभी जीते हैं पर जो असहाय लोगों के लिए जीते हैं, उनकी जिन्दगी कदरन सब से बड़ी, सबसे कीमती होती है। शांता नन्दी भी एक ऐसी ही शख्स थी जिसने जिन्दगी में एक के बाद एक झंझावातों का सामना बेहद साहस के साथ किया। कभी पति को मौत के मुंह से खींच निकाला तो कभी ऑटिज्म के शिकार बच्चों का ढाल बन गई। कई दिनों तक कोविड से जंग करने के बाद गुरुवार 8 अप्रैल की रात उन्होंने सबको विदा कह दिया।शांता और उनके पति दोनों ही कोविड से संक्रमित हो गए थे। दोनों का उपचार पं. जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र में हो रहा था। पति को तो कुछ दिन पहले छुट्टी मिल गई थी पर शांता की हालत लगातार बिगड़ रही थी। एक वेन्टीलेटर बेड के लिये उनका बेटा परिचितों से चिरौरी करता रहा, विनती करता रहा, रोता रहा, गिड़गिड़ाता रहा पर इस कोरोना काल में इसकी व्यवस्था नहीं हो पाई। अंततः उन्होंने गुरुवार की रात उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
2008 में उनके पति असीम कुमार नन्दी बीएसपी में हुए एक हादसे में गंभीर रूप से झुलस गए थे। डाक्टरों ने किसी तरह उनका जीवन तो बचा लिया पर उनकी आगे की जिन्दगी को लेकर कोई आश्वासन नहीं दे सके। शांता ने इसे एक चुनौती की तरह लिया। पति की बच्चे की तरह देखभाल की। प्यार से, डांट-डपट से उन्हें दोबारा अपने पैरों पर खड़ा किया। उन्हें दोबारा नौकरी पर जाने के लिए तैयार किया।
इस बीच स्वयं शांता में एक बड़ा परिवर्तन आ चुका था। अब वे उन बच्चों के लिए कुछ करना चाहती थीं जिनका जीवन घर के पिछले कमरों में बीता करता है। ये ऑटिज्म के शिकार बच्चे थे। इन बच्चों को लेकर स्वयं उनके माता पिता असहज होते हैं। उन्हें मेहमानों के आगे नहीं आने देते। उन्हें किसी पार्टी में लेकर नहीं जाते। कैदियों की तरह अपना जीवन बिताते इन बच्चों को शांता ने पढ़ना लिखना सिखाना शुरू किया। अपना काम खुद करने का प्रशिक्षण दिया। उन्हें चित्र बनाना, क्राफ्ट बनाना सिखाया। इन बच्चों के लिए उन्होंने ‘अर्पण स्कूल’ की स्थापना की। दानदाताओं को जोड़ा, शिक्षक और प्रशिक्षक जुटाए। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता बच्चियों की थी। ऐसी बच्चियां घर पर भी शारीरिक उत्पीड़न और यौन शौषण का शिकार हो जाती हैं। इन बच्चों को सीने से लगाए वह अपना शेष जीवन गुजार देना चाहती थी। जब मार्च 2020 में लॉकडाउन लगा तो उनकी सबसे बड़ी चिन्ता इन बच्चों को लेकर ही थी। ये बच्चे अपने घरों में रहना ही नहीं चाहते थे। इन बच्चों ने अर्पण स्कूल में आकर ही मुस्कराना सीखा था, बोलना सीखा था। यही वह जगह थी जहां उन्हें डरकर या सहमकर नहीं रहना होता था। वे यहां आते तो खुशी-खुशी थे पर लौटते रोते हुए थे। कोरोना काल में यह संतुलन गड़बड़ा गया। बच्चे दोबारा अपने घरों में कैद हो गए। बच्चे तो दुखी थे ही, पर उनसे कहीं ज्यादा दुखी थे अर्पण स्कूल के टीचर, विशेषकर शांता। अपने अंतिम सांसों तक वे इनकी ही चिन्ता करती रहीं।