छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आरएसएस तीन दिनों तक मंथन करेगा. इसमें शिक्षा, सेवा, आर्थिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दे शामिल किए जाएंगे. आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में संघ के 36 अनुषांगिक संगठनों के प्रतिनिधि बैठक में अपने कामकाज का प्रजेंटेशन देंगे. संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले सहित पांचों सह-सरकार्यवाह भी बैठक में शामिल होंगे. यह एक अच्छी पहल है कि देश को दिशा देने का दावा करने वाला संगठन पहली बार अपनी जिम्मेदारी को महसूस कर रहा है. काश! उन्होंने यह मंथन 10-15 साल पहले किया होता. भाजपा की सरकार ने 15 साल के अपने शासनकाल में उच्च शिक्षा की ऐसी मिट्टी पलीद की कि तकनीकी कालेजों में पढ़ाई निजी क्षेत्र के इंग्लिश मीडियम स्कूलों से सस्ती हो गई. लिहाजा वे अपनी मौत मरने लगीं. स्नातक स्तर की शिक्षा का यह हाल हुआ कि उसकी साल भर की फीस निजी स्कूलों के एक महीने की फीस के बराबर हो गई. चिकित्सा के क्षेत्र में केन्द्र ने जनता को पहले लॉलीपॉप दिखाया और फिर हाथ पीछे कर लिये. छत्तीसगढ़ ने शिक्षा के क्षेत्र में संतुलन बनाने की कोशिश शुरू कर दी है. इसके लाभ भी मिल रहे हैं. स्वास्थ्य की बात करें तो केन्द्र के “आयुष्मान” में इलाज कराना कठिन से कठिनतर होता चला गया. अब तो सुरक्षित प्रसव से भी “आयुष्मान” ने हाथ खींच लिया है. छत्तीसगढ़ ने इसका भी काट निकाल लिया. अब महंगी दवाइयां भी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त मिलेंगी. गौसेवा की ऐसी बयार चली कि गौ तस्करों की पकड़म-पकड़ाई और धुनाई एक अलग पेशा बन गया. छत्तीसगढ़ ने इसकी भी दिशा बदली और गोठानों के जरिए बूढ़ी गायों के साथ बैलों का भी बंदोबस्त कर दिया. केन्द्र सरकार की आर्थिक नीति का यह आलम है कि जीएसटी ने 2 रुपए के धंधे का संचालन खर्च 4 रुपए कर दिया. अब जबकि छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार एक-एक कर सभी चीजों को पटरी पर ला रही है तो यह बैठक जरूरी हो जाती है. शायद संघ यह जानना चाहता है कि जिस देश की आत्मा गांवों में रहती है, वहां का किसान क्या सोचता है. संघ समझ गया है कि हंगामे की राजनीति फौरी लाभ तो दिला सकती है पर इससे आम जनता को कोई लाभ नहीं होता. शायद इसलिए वह छत्तीसगढ़ मॉडल को करीब से देखना चाहता है. पर इसमें भी एक लोचा है. छत्तीसगढ़ में सवा साल बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं. संघ चाहकर भी यहां कांग्रेस सरकार की तारीफ करने की स्थिति में नहीं है. उसे अपने पिटे हुए मोहरे को दोबारा वजीर-हाथी-घोड़ा बनाना है. इसके लिए प्यादे को पैयां-पैयां आगे बढ़ाना होगा. पर इतना वक्त नहीं है. यह सकारात्मक सोच या रचनात्मक सहयोग का समय नहीं है. संघ को ऐसा मुद्दा ढूंढना होगा जिससे विधानसभा चुनाव में लोकसभा के मुद्दे हों. बाकी काम में तो उसे पहले ही महारत हासिल है.