वैसे तो छत्तीसगढ़ का बस्तर दशहरा अपनी अनूठी परम्पराओं और लंबी अवधि के लिए विश्व प्रसिद्ध है, पर देवभोग की परम्परा भी कम रोचक नहीं है. गरियाबंद जिले के देवभोग में, रावण दहन से पहले लंकेश्वरी देवी रावण की परिक्रमा करती हैं. लंकेश्वरी को लंका की रक्षा देवी लंकिनी का ही अपभ्रंश माना गया है. मान्यता है कि हनुमान से युद्ध में पराजित होने के बाद रावण के कोप से बचने के लिए लंकिनी दण्डकारण्य चली आई थी.
दण्डकारण्य पर उन दिनों खर-दूषण का आधिपत्य था. लंकिनी ने उनके पास ही शरण ले थी. देवभोग यहां से लगभग 150 किलोमीटर के फासले पर है. जब रावणवध की सूचना दण्डकारण्य पहुंची तो सबसे पहले लंकनी ने अपने राजा के प्रतीकात्मक शव की परिक्रमा की. इसके बाद ही उसका अंतिम संस्कार किया गया. माना जाता है कि तभी से यहां रावण दहन से पूर्व परिक्रमा की परम्परा प्रारंभ हो गई. अब लंकेश्वरी की अगुवाई में रावण की परिक्रमा की जाती है.
देवभोग के दशहरे को शाही दशहरे का दर्जा मिला हुआ है. इसका इतिहास 200 साल से भी ज्यादा पुराना है. विजयादशमी के दिन आसपास के गांवों के ग्राम देवता अपनी पताका के साथ देवभोग पहुंचते हैं. गांधी चौक पर रावण के विशालकाय पुतले की परिक्रमा करते हैं. आगे आगे लंकेश्वरी की पालकी होती है. जमींदारों के ईष्ट देव कंचना ध्रुवा अपनी पताका से पुतले को मारते हैं, तब जाकर रावण दहन किया जाता है. पिछले 80 सालों से शाही और देव पूजन की जिम्मेदारी दाऊ परिवार के पास है. दशरथ दाऊ को इसकी जिम्मेदारी मिली थी. अब उनकी तीसरी पीढ़ी के मुखिया जयशंकर दाऊ दशहरे की रस्म को निभाते हैं.
देवभोग और कांदाडोंगर में बरसों पहले इसी तरह दशहरा मनाने की परंपरा शुरू हुई. देवभोग से 35 किमी दूर स्थित जूनागढ़ में भी लंकेश्वरी देवी का मंदिर है. देवभोग के गांधी चौक में लंकेश्वरी देवी का मंदिर है. इसका भी रोचक इतिहास है. 1955 में नारायण अवस्थी ने 2 एकड़ जमीन खरीदी थी. इसके बाद से परिवार में बीमारियों का रहस्यमय दौर चला. बड़ी बहू भगवती पर इसका ज्यादा प्रभाव था. एक रात उसे सपना आया कि जिस जमीन को उन्होंने खरीदा है वहां कभी जमींदारों का खलिहान हुआ करता था. इसीके एक छोर पर लंकेश्वरी का मंदिर था. खुदाई की गई तो मंदिर के अवशेष मिले. 1987 में यहां नया मंदिर बनवा दिया गया. इस मंदिर के पट केवल विजयादशमी के दिन ही खुलते हैं. वैसे प्रत्येक मंगलवार को श्रद्धालु बंद पट के बाहर से ही पूजा करते हैं.
देवी का एक स्थान बरही ग्राम में भी है. यहां भी दशहरे के दिन ग्राम देवियों के साथ मां लंकेश्वरी भी पूजा की जाती है. बरही में लंकेश्वरी की स्थापना 1914 में की गई थी. बरही में बलि देने की भी प्रथा थी. बरही मंदिर में पट नहीं हैं. सिर्फ एक आयताकार विशाल द्वार है. यहां आम जनों का प्रवेश वर्जित है.
पश्चिम ओडिशा यानी उस वक्त के कलिंग क्षेत्र में सोम, छिंदका, नागा, गंगा, नागवंशी राजाओं का उल्लेख है. 16वीं शताब्दी में कलिंग के राजा लंकिनी की प्रतिमा लंका से लेकर आए थे. 18वीं शताब्दी के बाद कलिंग के इस इलाके तक ईस्ट इंडिया कंपनी की पहुंच हो चुकी थी. नागेंद्र शाह का परिवार छुरा से लेकर देवभोग तक जमींदारी संभाल रहा था. जूनागढ़ क्षेत्र के जमींदारो से भी उनके मधुर संबंध थे. वहां से वे देवी लंकेश्वरी की मूर्ति को देवभोग लेकर आ गए थे.