संतानहीनता किसी भी दंपति के जीवन को सूना कर सकती है. पहले इसका कोई उपाय नहीं था. लोग संतान के लिए एक पत्नी को छोड़कर दूसरी ले आते थे, कोई-कोई तीसरी या चौथी भी ले आता था. नतीजा अकसर शून्य ही रहता था. इसके साथ एक सामाजिक बुराई और जुड़ गई कि संतान नहीं होने पर स्त्री को बांझ ठहराया जाने लगा. बांझ स्त्री का जीवन नर्क से बदतर हो जाता था. विज्ञान ने तरक्की की. पहले इसे साबित किया कि संतानहीनता में जितना रोल महिला का हो सकता है, उतना ही पुरुष का भी हो सकता है. लगभग 14 प्रतिशत विवाहित जोड़े आज इस समस्या से जूझ रहे हैं. विकसित देशों में हुए शोधों के मुताबिक पुरुषों में बांझपन जहां 9 प्रतिशत तक तो महिलाओं में 11 प्रतिशत तक है. विज्ञान ने इसका भी हल निकाला. कमजोर शुक्राणु और अपरिपक्व डिम्ब को लेकर प्रयोगशाला में भ्रूण (IVF) तैयार किये जाने लगे. किसी-किसी मामले में Surrogacy (किराए की कोख) की भी जरूरत महसूस की गई. 2021 में इसके लिए नए विनियमन भी तैयार कर दिये गये. बांझपन का इलाज करने वाले क्लिनिक और नर्सिंग होम के लिए ART and Surrogacy Act के तहत पंजीयन को अनिवार्य कर दिया गया. इसमें पंजीयन कराने के लिए 2 लाख रुपए तक का पंजीयन शुल्क भरना पड़ सकता है. एआरटी, विशेषकर सरोगेसी के लिए सख्त नियम बना दिये गये. पर कुछ लोग इसकी परिधि से बाहर रह गए हैं. कोई प्रार्थना के जोर पर निःसंतान दंपतियों को संतान सुख की प्राप्ति करा रहा है तो कोई पूजा पाठ और जल चढ़ाने के माध्यम से बच्चे पैदा करा रहा है. इन माध्यमों से जिन्हें संतान की प्राप्ति हो रही है वो गोद में बच्चा लिये बाबाजी का प्रचार करते भी दिखाई दे रहे हैं. इन लोगों में से अधिकांश शिक्षित या उच्चशिक्षित हैं. इन शक्तियों पर अविश्वास करने का कोई कारण भी नहीं है. शादी के 10-15 साल बाद किसी को आशीर्वाद के जोर से संतान मिले तो यह खुशी की बात है. विज्ञान के रास्ते से संतान प्राप्त करने के लिए तो लाखों रुपए लगते हैं. इसके मुकाबले देसी जुगाड़ तो लगभग फ्री है. शरीर विज्ञान का अध्ययन करने वाले कहते हैं कि निःसंतानता के लिए मानसिक शारीरिक व्यग्रता भी जिम्मेदार हो सकती है. जब ऐसे दंपति हिम्मत हार जाते हैं या खुद को दैवीय शक्तियों के हवाले कर देते हैं तो यह व्यग्रता और तनाव कम हो जाता है. ऐसे में कोई-कोई दंपति स्वाभाविक रूप से गर्भधारण कर लेता है. वजह चाहे जो भी हो, नपुंसकता या बांझपन का यह टोटका कारगर तो है. जानना केवल यह है कि आशीर्वाद और प्रार्थना टेक्नीक से कितने लोगों की समस्या दूर हो रही है. यह तभी संभव है जब इनका भी पंजीयन हो और आशीर्वाद-प्रार्थना के मामलों की सफलता दर का पता आंकड़ों में लगाया जा सके.