चावल भारतीयों का मूल आहार रहा है. यह कम परिश्रम में तैयार होने वाला आहार है. धान से शुरू करें तो इससे पोहा, लाई, मुर्रा बनता है. चावल का भात, पुलाव, बिरयानी बनाया जा सकता है. भात को पानी में डुबोकर बासी या बोरे बनाया जा सकता है. ओड़ीशा में इसी को ठंडा पखाल और गर्म पखाल कहते हैं. बांग्ला में इसे पान्ता भात कहा जाता है. चावल को पीसकर इससे चिला, फरा, मुठिया बनाया जा सकता है. चावल के त्यौहारी व्यंजनों की तो लंबी फेहरिस्त है. इसी चावल को खाकर भारत के लोग स्वस्थ थे, मस्त थे. मोटापे का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था. आज भी आम छत्तीसगढ़िया, बंगाली, ओड़िया दुबला पतला ही है. पर इसी चावल को कुछ लोगों ने मोटापे का कारण बता दिया. लोग चावल से बचने लगे. रसोई बनाने वाले का श्रम बढ़ गया. पोषण की दृष्टि से देखें तो चावल और गेहूं दोनों ही अनाज हैं और दोनों में पोषक तत्व भी कमोबेश समान हैं. फर्क केवल इसे खाने के तरीके में होता है. गेहूं के साथ हम ज्यादा कुछ नहीं करते इसलिए उसका फाइबर कंटेंट बना रहता है जबकि चावल को पालिश करने पर उसका फाइबर कंटेंट कम हो जाता है. पर गांव के चावल के साथ ऐसा नहीं होता. चावल में वसा की मात्रा गेहूं से कम होती है. चावल में मैंगनीज, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सेलेनियम, आयरन, फोलिक एसिड, थायमिन और नियासिन (विटामिन बी 3) भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं. इसके साथ यदि साग-सब्जी पर्याप्त मात्रा में ली जाए तो व्यक्ति को किसी सप्लिमेंट की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी. चावल की ताकत का अंदाजा लगाना है तो हमें मजदूरों का भोजन देखना चाहिए. सुबह भात खाकर घर से निकले मजदूर दोपहर को बासी खाते हैं. प्रचण्ड गर्मी में दिन भर काम करने के बाद भी न तो वह डीहाइड्रेशन का शिकार होते हैं, न ही उनके चेहरे पर कोई शिकन आती है. बल्कि बासी खाकर वह पेड़ के नीचे आधा एक घंटा लात तान कर सो भी लेता है. इसलिए बासी को मजदूरों का भोजन मान लिया गया. हालांकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है. है यह मजदूरों और गरीबों का भोजन. पर इन्हीं मजदूरों और गरीबों के कारण प्रदेश में निर्माण होता है, तरक्की के रास्ते बनते हैं. फिर क्यों न इसे इसी रूप में सेलीब्रेट किया जाए? छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसे श्रमिक दिवस के साथ जोड़कर एक अलग पहचान दे दी. श्रमिक दिवस की नींव 19वीं सदी में अमेरिका के शहर शिकागो में पड़ी थी. 1886 में एक मई को यहां श्रमिकों ने 8 घंटे के कार्यदिवस के लिए आंदोलन किया था. छत्तीसगढ़ ने मई दिवस को बासी से जोड़कर इस पर्व को स्थानीय महत्व प्रदान कर दिया. छत्तीसगढ़ अब एक मई को स्मरण दिवस के रूप में नहीं बल्कि श्रम के सम्मान दिवस के रूप में मनाता है. इसलिए तो कहते हैं “छत्तीसगढ़िया-सबले बढ़िया.”