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कहानी – “दामू गुरू” (अंतिम किस्त) लेखक दिनेश दीक्षित

May 12, 2023
Damu-Guruji by Dinesh Dixit

अरविंद ने कहा – गुरुजी आपके प्रकरण का निपटारा मैं अतिशीघ्र करने की कोशिश करूंगा, आप सिर्फ मुझे सारे कागज़ात पढ़ने का समय दीजिए और उसने गुरुजी को चार दिन बाद की तारीख दे दी।
दामू गुरु पशोपेश में थे। अब ये जरूर मेरे किए का बदला लेगा। अपराध भाव से ग्रसित बाहर निकल आए। भारी कदमों से बरामदा पार कर ही रहे थे कि पीछे से आवाज़ आई – गुरुजी ज़रा रुकिए! देखा तो आफिस का अरदली था, बोला – सर आपको साहब ने बुलाए हैं, लंच हो गया है, वे अपने रूम में आपका इंतजार कर रहे हैं।
फिर गुरु को कु – शंका ने धर दबोचा – अब ये जरूर खरी – खोटी सुनाएगा! खैर, बुलवाया है तो मिल लिया जाए। फिर प्रकरण भी तो इसी के हाथ में है। दरवाजे का परदा हल्का सा हटा कर दामू गुरु बोले – क्या मैं अंदर आ सकता हूं? अरविंद ने फुर्ती से कुर्सी छोड़कर गुरु के पांव छू लिए। अपने हाथों कुर्सी पीछे सरकाकर गुरु को बिठाया। टिफ़िन खुला हुआ था उसे गुरुजी के आगे कर दिया – सर रूखा – सूखा है, आपको जो पसंद हो ले लीजिए। दामू गुरु ने कहा – कोर्ट आने से पहले मैं घर से खाकर निकला हूं। अरविंद ने कहा – नहीं सर आपको लेना ही होगा, जो भी भाए, नहीं तो मैं भी नहीं खा पाऊंगा। दामू गुरु का कलेजा मुंह को आ गया, गला भर आया और आंखों में पानी का समंदर हिलोरे लेने लगा। बमुश्किल एक कोर सब्जी के साथ हलक से उतरा होगा कि वो बुक्का फाड़ रो पड़े। अरविंद ने गुरुजी को पानी दिया बोला – सर सब आपका ही दिया है। मैं, आपके केस को अगली तारीख तक निपटा दूंगा। मुझे मालूम है ज़मीन आपकी ही है, विरोधियों ने गलत दावा किया है।
दामू गुरु कमरे से निकलते हुए जेठ की तपती दुपहरी में पश्चाताप में झुलस रहे थे। बस स्टैंड तक पहुंचते उनकी आंखे कई दफा जेठ में बरसने वाले स्थानीय बादलों सी बरसी। बस छूटने को थी, वो दौड़कर उसमें सवार हो गए और आखरी ख़ाली सीट पर बैठ गए। कुछ देर बाद जब बस ने शहर छोड़ कर खेतों के बीच का रास्ता पकड़ा तब उनकी नजर अगली सीट पर बैठे सरपंच के सुपुत्र घनश्याम पर पड़ी। उन्होंने आवाज़ दी – घनश्याम !
अरे ! दामू गुरु ? बोलकर घनश्याम पीछे बढ़ा ही था कि बीच वाली सीट पर बैठे हुए उसके एक मित्र ने उसे हाथ पकड़ कर बैठा लिया और बोला – रिटायर्ड मास्टर से मिलकर क्या होगा घन्नू ? इनसे मिल, शुकुलजी हैं शहर के सबसे बड़े ठेकेदार । गांव की पूरी सड़क का ठेका इन्ही को मिला है, कुछ अपना भी जुगाड – पानी हो जाएगा। फिर घनश्याम गुरुजी की तरफ़ पलटा ही नहीं। गांव के नाके पर बस रुकी तो वो तीनों उतर कर..…ये जा ! वो जा ! हो गए। गुरुजी बस पांव की उड़ती धूल ताकते रह गए।
बस स्टैंड से घर तक का पैदल सफ़र दामू गुरु की जिंदगी भर पाली अवधारण के चट – चट चटकते हुए गुजरा।
भैंसदई की शाम धीरे – धीरे बूढ़ी इमली के तले उतर रही थी, जैसे वो भी बूढ़ी इमली की खोह में रात्रि विश्राम करेगी।
लगभग ज़मीन पर लौटती शाम के साथ दामू गुरु बूढ़ी इमली के पास पहुंचे और उससे लिपट कर बोले – दाई मैं जिस घनश्याम को जी – जान लगाकर पढ़ता रहा वो पलट कर भी नहीं देखता। और जिस अरविंद का हक़ छीना, राह में भरसक रोड़े अटकाए वो डिप्टी कलेक्टर होकर भी साथ खाना खिलाता है, ऐसा क्यों ? क्या अच्छी शिक्षा ही तमीज सिखाती है, सबको माफ़ करने की? बिल्कुल तेरी तरह, तू भी तो पत्थर मारने वालों को सज़ा नहीं देती।
उन्हे लगा बूढ़ी इमली दाई उन्हे झुककर खड़ा कर रही है, वे उठे और अपने घर की तरफ़ चल पड़े। घर के अंदर से कंदील की रोशनी दरवाजों के रंधो से छनकर गलियारे में आ रही थी। घर की देहरी बराबर दो भागों में बटी दिखाई दे रही थी। दामू गुरु को उनके ऊपर के कमरे की सीढ़ियां साफ नज़र आ रही थी। उन्हे लगा वे बरसों बाद घर लौटे हैं।
सुबह टेकरी पर सूरज चढ़ आया था। गांव के ढोल – ढ़ंकर अपनी घंटियां बजाते नाश्ते और सैर – सपाटे के लिए निकल पड़े थे। बूढ़ी इमली दाई पर गांव की बदमाश चिड़ियाएं मस्ती कर रही थी। बूढ़ी इमली दाई के तले दामू गुरु गरीब बच्चों को गणित पढ़ा रहे थे।
(समाप्त)

(प्रथम किस्त)

(द्वितीय किस्त )

(तृतीय किस्त)

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