क्या दुनिया में कोई नौकरी ऐसी हो सकती है जहां महिलाओं को प्रतिदिन अपनी ड्यूटी पर एडल्ट डायपर पहनकर जाना पड़े? भारतीय रेलवे में काम करने वाली अधिकांश महिला लोकोपायलट डायपर पहनकर काम पर जाती हैं. इसकी वजह भी साफ है. भारतीय रेलवे अब तक अपनी 12000 से भी ज्यादा रेल इंजनों में से केवल 120 में ही टॉयलेट प्रदान कर पाई है. शेष ट्रेनों में न तो टायलेट हैं और न ही पानी. सुविधा विहीन ट्रेनों के पायलट और केबिन क्रू 9 घंटे या उससे भी ज्यादा समय तक बिना टायलेट सुविधा के ही अपनी ड्यूटी करते हैं. किसी को कभी सूझा ही नहीं कि लोकोपायलट भी हाड़मांस का इंसान है जिसे सुसू पोट्टी आ सकती है. पुरुष लोको पायलट भी इसी समस्या से जूझते हैं. जिन ट्रेनों के इंजन में टायलेट नहीं होता, वे स्टेशनों पर ट्रेन के रूकते ही दौड़ कर निकटस्थ बोगी के टायलेट में जाते हैं और भाग कर वापस आते हैं. सुविधा हुई तो स्टेशन के टॉयलेट का भी इस्तेमाल कर लेते हैं. टायलेट में पहले से ही कोई गया हुआ हो तो वैसे ही लौट आना पड़ता है, क्योंकि ट्रेन को रोकना या चलाना उनकी मर्जी पर निर्भर नहीं होता. सुपरफास्ट ट्रेनें घंटों बिना रुके चलती हैं. स्टेशनों पर हाल्ट भी केवल 2 मिनट का होता है. हालांकि विशेष परिस्थितियों में टायलेट ब्रेक लिया जा सकता है पर महिलाएं इससे भी बचने की कोशिश करती हैं. भारत के कुल 65000 लोको पायलटों में से 1350 महिलाएं हैं. टायलेट की परेशानी से बचने के लिए इनमें से अधिकांश न केवल पानी कम पीती हैं बल्कि डायपर पहनकर काम पर जाती हैं. गर्म परिवेश में काम करने और पानी कम पीने के कारण इन्हें यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन (यूटीआई), किडनी स्टोन समेत अन्य स्वास्थ्यगत परेशानियों का सामना करना पड़ता है. पीरियड्स के दौरान भी उन्हें पैड बदलने में काफी परेशानी होती है. यही वजह है कि भारतीय रेलवे में लोको पायलट भरती होने वाली महिलाएं भी डेस्क जॉब करना पसंद करती हैं. परेशानियां लोको पायलटों के जीवन का हिस्सा हैं. लगातार 9 या उससे भी अधिक घंटों तक लगातार एकाग्रता के साथ काम करने के कारण लोको पायलट्स को मानसिक एवं शारीरिक दबाव से भी गुजरना पड़ता है. एक छोटी सी चूक पर उसे अपनी नौकरी से ही हाथ धोना पड़ सकता है. 2016 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने रेलवे से सभी रेल इंजनों में टायलेट, पेयजल और वातानुकूलन का प्रबंध करने को कहा था पर अब तक वंदेभारत समेत केवल 200 इंजनों में ही यह सुविधा दी जा सकी है. दरअसल, जब भी ट्रेनों की बात होती है तो विषय ट्रेन की स्पीड, यात्रियों की सुविधा और आराम पर केन्द्रित हो जाती है. उन लोगों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता जो इतनी सारी जिंदगियों को लेकर पटरियों पर दौड़ रहे होते हैं. इनकी जरा सी चूक हजारों रेल यात्रियों के जान-माल को खतरे में डाल सकती है. इस दिशा में युद्ध स्तर पर काम होना चाहिए.