भाजपा कहती रह गई और कांग्रेस ने डबल इंजन की सरकार बना दी. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव की ताकत मिल गई. “कका-बाबा” की जोड़ी ने बिना कोई वक्त गंवाए प्रदेश की राजनीति को स्पष्ट संदेश भी दे दिया. कांग्रेस में कोई फूट नहीं है. ‘बाबा’ का भाजपा प्रवेश नहीं हो रहा. वे नाराज नहीं बल्कि उदास थे. वजह भी साफ है. वे अपने कद के हिसाब से अलग दिखना-करना चाहते थे. चार अन्य विधायक या मंत्रियों के साथ एक लाइन में नहीं खड़े होना चाहते थे. पार्टी आलाकमान ने उनके दर्द को समझा और वह अलग पहचान उन्हें दे दी, जिसके वे तलबगार थे. अब ‘बाबा’ फुल पावर में हैं. सरगुजा से लेकर बस्तर तक उनका एक विशाल प्रभाव क्षेत्र है. उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि अब वे भूपेश को दोबारा सीएम बनाने के लिए काम करेंगे. उन्होंने इसकी शुरुआत भी फौरन कर दी. डिप्टी सीएम बनने के बाद वे सीधे ‘कका’ के घर पहुंचे. पूरे परिवार से मुलाकात की. इसके बाद सीधे ‘कका’ के विधानसभा क्षेत्र पहुंचे और वहां मुख्यमंत्री के पुत्र के साथ बूथ चलो अभियान का हिस्सा बने. अपने कद के अनुरूप ही उन्होंने कुछ बातें और भी कहीं. उन्होंने कहा कि एक परिवार से एक ही आदमी का चुनाव लड़ना सही रहता है. उन्होंने साफ कर दिया कि वे पहले की ही तरह शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और प्रसंस्करण केन्द्रों की स्थापना को लेकर काम करते रहेंगे. इसके बाद भाजपा के पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं रह गया. ट्विटर सीएम ने जब उन्हें 90 दिन का डिप्टी सीएम बनने पर बधाई दी तो उन्हें टका सा जवाब भी मिल गया. उन्होंने कहा कि सीएम एक संवैधानिक पद है जबकि डिप्टी सीएम केवल औपचारिक. यह सिर्फ एक पहचान है. ‘बाबा’ से इसी परिपक्वता की उम्मीद थी. बहरहाल, कांग्रेस के इस दांव पर भी थोड़ी चर्चा होनी चाहिए. भाजपा के पास दो ही बड़े मुद्दे थे, हैं और शायद आगे भी रहेंगे. इसमें से पहला है परिवारवाद और दूसरा धर्मांतरण. इसके अलावा भाजपा केवल साम-दाम-दंड-भेद की राजनीति ही करती रही है. लोगों को डरा धमकाकर, प्रलोभन देकर अपने में मिलाने की उसमें अद्भुत क्षमता है. इसे गैर भाजपाई ‘सुपर लांड्री’ कहते हैं जहां जाते ही सारे दाग धुल जाते हैं. सिंहदेव पर भी उसकी नजर थी पर कांग्रेस ऐन वक्त पर गच्चा दे गई. भारतीय समाज न केवल राजा के पुत्र को स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानता है बल्कि उसमें राजा का अक्स भी ढूंढता है. वह मिलान करता है कि राजकुमार राजा से बेहतर है या कमतर. कमोबेश यही स्थिति राजीव की शहादत के बाद सोनिया और राहुल को लेकर भी बनी थी. इसे भाजपा ने परिवारवाद कहा, जबकि पुत्र को विरासत सौंपने वालों की वहां भी कोई कमी नहीं है. सोनिया-राहुल ने साबित कर दिया है कि उत्तराधिकार की भारतीय सोच में दम तो है, वो निपट अनाड़ी नहीं हैं.