एनएसयूआई ने रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में काले कपड़े पहनकर प्रदर्शन किया. वैसे काला अब विरोध प्रदर्शन या नाराजगी का रंग नहीं रहा है. काला कपड़ा पहनकर अब कोई कोपभवन में नहीं जाता बल्कि यह खूबसूरती को और निखारता है. काला अब युवाओं का फेवरिट कलर है. लगभग सभी युवाओं के पास काले रंग के कपड़े मिल जाएंगे. पहले जहां काले को अशुभ माना जाता था वहीं अब फैशन जागरूक युवाओं को पता है कि काले रंग में न केवल गोरे चिट्टे लोगों को अच्छा कंट्रास्ट मिलता है बल्कि सांवले लोगों का भी रंग साफ लगने लगता है. इसलिए जैसे ही काले कपड़े में प्रदर्शन करने की बात आई, लोग फटाफट तैयार होकर विश्वविद्यालय पहुंच गए. वैसे इस विरोध की वजह भी निराली है. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में बैचलर ऑफ कम्प्यूटर एप्लिकेशन (बीसीए) के 80 फीसदी विद्यार्थी या तो फेल हो गए हैं या फिर उन्हें पूरक मिला है. हाल हेमचंद विश्वविद्यालय का भी बहुत अच्छा नहीं है. बीसीए प्रथम वर्ष में यहां भी नतीजे 27-28 प्रतिशत के आसपास ही है. वैसे, जो हाल विद्यार्थियों का है, नतीजे इससे भी बुरे हो सकते थे. पिछले दो दशकों में शिक्षा के स्तर का लगातार ह्रास हुआ है. पूरा का पूरा छत्तीसगढ़ ट्यूशन और कोचिंग माफिया के घेरे में है. कोचिंग संस्थान और गाइड-अनसाल्व्ड छापने वालों का गठजोड़ भी किसी से छिपा नहीं है. सिलेबस से लेकर प्रश्न पत्रों तक की साल-दर-साल एकरूपता ने इस गठबंधन को और ताकतवर बनाया है. विषय पढ़ाने की बजाय केवल परीक्षाओं के लिए तैयार करने का एक ऐसा कुचक्र चल पड़ा है जिसे रोक पाना असंभव सा लग रहा था. 30 या हद से हद 40 फीसद सिलेबस पढ़कर बच्चे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो रहे थे. विषय की गहराई और गंभीरता से उनका कोई वास्ता नहीं रह गया था. शहरी क्षेत्रों के अधिकांश कालेजों में उपस्थिति 10 से 20 प्रतिशत विद्यार्थियों की ही रह गई थी. विद्यार्थियों ने मान लिया था कि 60-70 परसेंट तो वो कैसे भी ले ही आएंगे. इससे विश्वविद्यालयों की साख को भी बट्टा लग रहा था. इसलिए अब पहल हुई है, और सही जगह से हुई है. आप कालेज में पढ़ो या कोचिंग में, डिग्री तो विश्वविद्यालय को ही देना है. इस बार पेंच थोड़ी सी क्या कसी है, लोगों की चीख निकल गई है. लोगों की समझ में आ गया है कि कोचिंग वाले कोई आसमान से नहीं टपके हैं. कालेजों में प्राध्यापक सिलेबस पूरा करवाते हैं जबकि कोचिंग वाले केवल परीक्षा में पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों को रटाते हैं और ऐसा लगने लगता है कि कोचिंग वाले फन्ने-खां हैं. यह एक गलत परिपाटी थी जिसकी तरफ से विश्वविद्यालयों की अकादमिक काउंसिलों ने आंखें मूंद रखी थी. किसी भी विषय के अध्ययन में सैद्धांतिक और प्रायोगिक दोनों पक्ष समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं. विद्यार्थियों को भी इसे समझना होगा और अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी.