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धूप से बचे तो ढोकले जैसी हो जाएंगी हड्डियां

Nov 5, 2014

dr-urgaonkarभिलाई। बचपन में जहां हड्डियों लचीली होती हैं वहीं बुढ़ापा आते तक उनमें भुरभुरापन आने लगता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसके प्रति सावधान रहने की जरूरत है। अपनी दिनचर्या में मामूली फेरबदल कर हम अपनी अस्थियों को मजबूत बना सकते हैं। एमजे कालेज में आयोजित सेमिनार में अस्थि रोग विशेषज्ञों ने इसके लिए अनेक टिप्स दिए। सेमिनार को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए वरिष्ठ आरथोपीडिक सर्जन एवं दुर्ग के पूर्व सीएमएचओ डॉ एडी उरगांवकर ने बुढ़ापे की हड्डियों की तुलना जलाराम के ढोकलों से करते हुए कहा कि बढ़ती उम्र में बोन मिनरल का घनत्व कम होने लगता है। एक्सरे में ऐसी अस्थियां कुछ कुछ पारदर्शी सी लगने लगती हैं। मामूली चोट या जोर पड़ने पर भी ऐसी हड्डियों चटक सकती हैं, टूट सकती हैं। जोड़ों पर, खासकर जिन्हें शरीर का वजन ढोना होता है, खतरा और भी अधिक होता है। इनमें घुटने, टखने, कमर आदि शामिल होते हैं।
डॉ उरगांवकर ने बताया कि हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए आहार में कैल्शियम का होना जितना जरूरी है उतना ही महत्व सुबह की धूप में मिलने वाली पराबैंगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट रेज) का भी है। पराबैंगनी किरणें हमारी त्वचा में मौजूद तत्वों की सहायता से शरीर में विटामिन डी-3 का उत्पादन करती हैं। यह विटामिन आहार में शामिल कैल्शियम को अस्थियों तक पहुंचाने और उसे आत्मसात करने में मददगार होता है।
mj-collegeकार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे भिलाई इस्पात संयंत्र के निदेशक, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएं डॉ शैलेन्द्र जैन ने कहा कि बदलती जीवन शैली ने समस्या को बढ़ा दिया है। अब हम सुबह देर से उठते हैं। घर पर, दफ्तर में वातानुकूलित कमरों में रहते हैं। बंद वाहनों में सफर करते हैं। इस तरह हम सूर्य की किरणों से अपने शरीर को वंचित करते हैं। एक समय था जब बच्चों को सुबह उठाकर मंदिर भेजा जाता था। सुबह सुबह नदी या तालाब में स्नान कर जब वह पहाड़ी पर स्थित मंदिर तक जाता था तो न केवल उसका मार्निंग वाक हो जाता था बल्कि उसकी त्वचा पर्याप्त मात्रा में अल्ट्रावायलेट किरणें प्राप्त कर लेती थीं। अब तो लोग वाकिंग भी बंद कमरों में मशीनों पर करने लगे हैं। नतीजा यह है कि एक तरफ जहां शरीर को संभालने वाला ढांचा (मस्कुलोस्केलेटल सिस्टम) कमजोर होने लगा है वहीं शरीर का वजन औसत से ज्यादा होने लगा है। इसकी वजह से असमय ही लोग जोड़ों के दर्द से परेशान होने लगे हैं। डॉ जैन ने कहा कि पश्चिम के अंधानुकरण ने स्थिति बिगाड़ दी है। हम उनके जैसा जीवन तो जीने लगे हैं किन्तु इस तथ्य को नजर अंदाज कर जाते हैं कि पश्चिम के लोग सप्ताहांत में बहुत कम वस्त्रों में धूप स्नान भी करते हैं।

सर्जरी ही स्थायी विकल्प
सेमिनार के मुख्य वक्ता अपोलो बीएसआर अस्पताल, भिलाई के जाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन एवं सुपर स्पेशलिस्ट डॉ सौरभ शिरगुप्पे ने बताया कि अधिक वजन और कमजोर हड्डियों के कारण बढ़ती उम्र में शरीर का भार ढोने वाले जोड़ों में दर्द होने लगता है। यह दर्द लगभग स्थायी होता है जिसके कारण जीवन की गुणवत्ता कम होने लगती है। चलना-फिरना, बैठना-उठना मुश्किल हो जाता है। व्यक्ति लाचार होकर दिन भर बैठा या लेटा रह जाता है जिससे समस्या और बढ़ जाती है।
स्लाइड शो द्वारा स्थिति को विस्तार से समझाते हुए वे कहते हैं कि आरंभिक अवस्था में सिंकाई और मालिश से थोड़ी बहुत राहत मिल जाती है। वजन कम करने तथा फिजियोथेरेपी से भी कुछ राहत मिलती है किन्तु दर्द बार बार लौट कर आ जाता है। जोड़ों को जब स्थायी नुकसान हो जाता है तो इनमें से कोई भी तरीका काम नहीं करता। पेन किलर्स का हेवी डोज दर्द से राहत तो देता है पर जोड़ फिर भी काम नहीं करते। लंब समय तक रोग की उपेक्षा करने पर जोड़ों की स्थिति और खराब हो जाती है। हड्डियां घिस जाती हैं, कार्टिलेज खराब हो जाते हैं, पैर टेढ़े हो जाते हैं। इसके साथ ही इलाज जटिल और महंगा हो जाता है। इसलिए जितनी जल्दी संभव हो सर्जरी करा लेनी चाहिए। घुटना प्रत्यारोपण ही इसका स्थायी इलाज है जिससे मरीज रोग से पहले वाली अवस्था को लौट जाता है। दर्द से पूरी तरह आराम मिल जाता है और वह पहले की तरह ही काम काज कर सकता है।
mj-college1अपने करियर में घुटनों का जोड़ बदलने (ज्वाइंट रिप्लेसमेंट) के हजारों आपरेशन कर चुके डॉ शिरगुप्पे बताते हैं कि कुछ साल पहले तक इस सर्जरी की सुविधा सिर्फ चुनिंदा महानगरों तक सीमित थी। कामकाज छोड़कर किसी महानगर में जाकर यह आपरेशन करवाना महंगा तो था ही, अधिकांश लोगों के लिए समय निकालना ही असंभव था। पर अब यह सुविधा भिलाई के अपोलो बीएसआर अस्पताल में उपलब्ध है।
डॉ शिरगुप्पे ने बताया कि पहले जहां इस तरह के आपरेशन में लंबा समय लगता था और काफी रक्तस्राव भी होता था वहीं अब अत्याधुनिक तकनीक से यह आपरेशन एक घंटे से भी कम समय में सम्पन्न हो जाता है। रोगी कुछ ही दिनों में चलने फिरने लगता है तथा एक माह में पुरी तरह रिकवर कर लेता है। हालांकि उसे कुछ सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। वे अपने मरीजों को घुटना प्रत्यारोपण के बाद पालथी मारने या इंडियन टायलेट यूज करने से परहेज करने की सलाह देते हैं।
आरंभ में संधान संस्था के प्रमुख प्रो. डीएन शर्मा ने आयोजन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कभी संधिवात बुढ़ापे की बीमारी मानी जाती थी किन्तु अब 45 पार के लोग भी इसका शिकार होने लगे हैं। यह व्यक्ति की उम्र का वह हिस्सा है जब उसकी उत्पादकता चरम पर होती है। ऐसे समय में इन विकारों से न केवल उनके जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है बल्कि राष्ट्र के विकास में वे अपना योगदान करने से भी वंचित रह जाते हैं। इसलिए इस बीमारी से बचाव एवं उपचार के प्रति जागरूकता लाना ही इस सेमिनार का उद्देश्य है। इसका आयोजन बीएड एवं नर्सिंग छात्राओं के बीच इसलिए किया गया है कि वे अधिक से अधिक लोगों तक इसकी जानकारी पहुंचा सकें।
अंत में एमजे कालेज के प्राचार्य डॉ कुबेर गुरुपंच ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि कालेज की डायरेक्टर श्रीलेखा विरुलकर के विशेष आग्रह पर संडे कैम्पस डॉट कॉम ने बीएड और नर्सिंग छात्राओं के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया। उन्होंने कहा कि वक्ताओं ने एक तरफ जहां भारतीय जीवन पद्धति के एक महत्वपूर्ण हिस्से को रेखांकित किया है वहीं आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विकल्पों के बारे में भी सारगर्भित जानकारी दी है। उन्होंने उम्मीद जताई कि सेमिनार में उपस्थित सभी लोगों को इसका लाभ मिलेगा और वे यह जानकारी अपने आगे बढ़ाएंगे।
इस अवसर पर हेरिटेज इंटरनेशनल स्कूल के संचालक बृजमोहन उपाध्याय, एमजे कालेज की डायरेक्टर श्रीलेखा विरुलकर, प्राध्यापक, व्याख्याता, संडे कैम्पस डॉट कॉम के मॉडरेटर दीपक रंजन दास सहित एमजे कालेज के बीएड एवं नर्सिंग संकाय की छात्र छात्राएं बड़ी संख्या में उपस्थित थीं।

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