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स्वार्थियों ने धीमी की युगनिर्माण की गति

Dec 23, 2014

sunil sharma, gayatri shaktipeethभिलाई। शांतिकुंज हरिद्वार से पधारे पं. सुनील शर्मा ने कहा कि जब भी कभी समूह बनता है तो उसमें कुछ स्वार्थी तत्वों का प्रवेश हो जाता है। उनकी आध्यात्म में तनिक भी रुचि नहीं रहती। उनके क्रियाकलाप एवं वचनों से भ्रम की उत्पत्ति होती है जिसकी वजह से सुधार के कार्यों की गति धीमी पड़ जाती है। उन्होंने कहा कि श्रद्धेय पं. श्रीरामशर्मा आचार्य ने युगनिर्माण की जो पहल की वह मजबूती से आगे बढ़ रही है। उन्होंने स्वीकार किया कि समाज एवं राष्ट्र कल्याण के लिए उनके प्रयासों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। इसकी वजह यह है कि संस्था से जुडऩे के बाद भी हम आत्मशोधन नहीं कर पा रहे हैं। हमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि यहां हम सेवा के लिए आए हैं। इसमें हमारा तनिक भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए। जब तक नि:स्वार्थ सेवा का भाव नहीं होगा, अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी। (वीडियो देखें) >>>
इसलिए नहीं हो रहा प्रवचनों का असर
एक सवाल के जवाब में पं. शर्मा ने कहा कि आध्यात्म, यज्ञ, हवन और प्रवचनों की बाढ़ सी आई हुई है किन्तु इसका असर हमें समाज पर पड़ता दिखाई नहीं दे रहा तो उसकी एक ही वजह है कि हम समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। उन्होंने बताया कि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य ने समस्या की जड़ को पहचान लिया था। उन्होंने कहा था कि अपना सुधार ही जग की सबसे बड़ी सेवा है। अपना सुधार करने के बाद अपने परिवार को सुधारना होगा क्योंकि उसे हमने बसाया है। हम अपने परिवार की बेहतरी के लिए व्यग्र रहते हैं। हमारी इच्छा होती है कि हमारी संतान में अच्छे संस्कार पड़ें। बच्चा हमें देखकर आचरण सीखता है। इसलिए जब तक हम स्वयं में सुधार न करें परिवार नहीं सुधर सकता। जब तक परिवार नहीं सुधरेगा, समाज नहीं सुधरेगा। पं. सुनील शर्मा ने कहा कि हम दूसरों को सुधार कर स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं कर सकते। हमें स्वयं को सुधारना होगा। स्वयं में देवत्व के गुण उभारने होंगे।
पारिवारिक पंचशील के सिद्धांत
उन्होंने कहा कि मनुष्य का जन्म परिवार में होता है और परिवार से समाज बनता है। व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के बीच में परिवार निर्माण आता है। परिवार निर्माण हो जाएगा तो व्यक्ति निर्माण भी हो जाएगा और समाज निर्माण भी हो जाएगा। इसके लिए ऋषियों ने पारिवारिक पंचशील के सिद्धांत बताए हैं। इसमें पहला गुण शिष्टाचार, वाणी में, व्यवहार में शालीनता होनी चाहिए। दूसरा है सुव्यवस्था और स्वच्छता का है। जीवन अस्तव्यस्त न हो। इससे प्रयासों का सही फल प्राप्त नहीं होता। जो व्यक्ति चिंतन से, चरित्र से सुव्यवस्थित होगा, उसी का जीवन सफल होगा। तीसरा गुण उदार सहकारिता का होना चाहिए। ऋषियों ने कहा है कि उदार चरितानाम ते वसुधैव कुटुम्बकम। जो पूरे विश्व को अपने परिवार के रूप में देखता है वह किसी के लिए कुछ भी कर सकता है। वह उदारता के साथ संसार के प्रत्येक प्राणी को देने के लिए प्रस्तुत होता है। चौथा गुण मितव्ययिता का है। आमदनी चाहे जितनी भी हो, स्वयं पर कम से कम खर्च करना चाहिए तथा परिवार, समाज एवं राष्ट्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। उन्होंने कहा कि धन हमारा नहीं है। हम तो खाली हाथ आते हैं, खाली हाथ चले जाते हैं। धन राष्ट्र का है। उन्होंने बताया कि पांचवा धर्म श्रमशीलता का है। जितनी भी जिम्मेदारी हमें मिली, हमें उसे पूरे परिश्रम से, अच्छे से अच्छे तरीके से निभाना चाहिए। तभी बड़े बड़े काम सफल हो पाते हैं।
उन्होंने कहा कि पारिवारिक पंचशील के बाद आते हैं व्यक्ति से व्यक्ति के रिश्ते। पिता-पुत्र, माता-पुत्र, पति-पत्नी, मित्र से मित्र का रिश्ता। हमें इन रिश्तों की अहमियत समझनी होगी तथा तदनुरूप आचरण करना होगा। श्रीराम-भरत के रिश्ते इतने जीवंत थे कि जिस राजगद्दी के कारण श्रीराम का वनवास हुआ, उसे भरत ने भी कभी स्वीकार नहीं किया। इसी तरह पिता पुत्र का रिश्ता है। पिता नि:स्वार्थ भाव से अपनी संतानों की परवरिश करता है। उसकी वृद्धावस्था में पुत्र को भी नि:स्वार्थ भाव से उसकी सेवा करनी चाहिए।
व्यक्तिगत आवश्यकताओं को सीमित रखें
देवत्व की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि अर्थोपार्जन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होनी चाहिए। व्यक्तिगत आवश्यकताओं को सीमित रखना चाहिए। निजी जरूरतें छोटी होंगी तभी हम अपने उपार्जन का बड़ा भाग समाज के हित में, राष्ट्र के हित में खर्च कर पाएंगे। देवत्व का मतलब ही देने की क्षमता और इच्छा का होना है। हम जितना देंगे, ईश्वर हमें उससे कई गुणा ज्यादा देगा।
अंतरात्मा ही सद्गुरु
पं. शर्मा ने कहा कि हमारा सबसे अच्छा मार्गदर्शक हमारे भीतर छिपी हमारी अंतरात्मा है। हमारा मन चाहे हमें जिस दिशा में भी प्रेरित करे, हमारी अंतरात्मा हमें उचित अनुचित का आभास कराती रहती है। जो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं, वे कभी अपनी राह से नहीं भटकते। इसलिए मनुष्य को अपने प्रत्येक कार्य से पहले अपनी अंतरात्मा की राय जरूर लेनी चाहिए।

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