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मनुष्य डायनोसोर की नियति की ओर बढ़ रहा है

Jun 5, 2015
R A Pathak, Science college durg

आर.ए.पाठक/ दुर्ग। शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विचार गोष्ठी सम्पन्न हुई, जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में उप मुख्य वन संरक्षक, आर.ए. पाठक ने कहा कि मानव समाज विकास की अंधी दौड़ में शामिल है, जिसका कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है। जिस पैमाने पर विकास के नाम औद्योगिकीकरण हो रहा है, उसके चलते ऐसा प्रतीत होता है कि मानव जाति एक दिन डायनोसार की तरह विलोपन का शिकार होने वाली है। Read More
श्री पाठक ने बताया कि आज से साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले धरती पर एक विशाल उल्का पिंड के टकराने के बाद उठे धुएं और गर्द, गुबार से पर्यावरण इस कदर प्रदूषित हो उठा और अंधेरा छा गया कि प्रकाश संश्लेषण न होने के कारण वनस्पतियां नष्ट हो गयी, और भोजन के अभाव में शाकाहारी डायनोसार काल-कवलित हो गये। अब वे जीवाश्म के रूप में शेष रह गये है। मनुष्य जाति आज इसी नियति की ओर बढ़ रही है।
श्री पाठक ने कार्बन व्यापार के वैश्विक कारोबार के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि भारत सरकार भी इस दिशा में व्यापक कदम उठा रही है तथा हमारे देश में उपलब्ध अतिरिक्त कार्बन क्रेडिट से करोड़ो डॉलर की आय अर्जित की जा सकती है। उन्होंने वन संरक्षण, सामाजिक वानिकी, जैव विविधता संरक्षण की दिशा में किये जा रहे प्रयासों की भी जानकारी दी तथा कहा कि संतुलित विकास के लिए पर्यावरण को बचाया जाना अत्यावश्यक है।
विचार गोष्ठी के अध्यक्षीय संबोधन में प्राचार्य, डॉ. सुशील चन्द्र तिवारी ने कहा कि विकास और विपदा आज साथ-साथ चल रहे हैं। विकास के नाम पर चलने वाली गतिविधियों के कारण पर्यावरण नष्ट हो रहा है। परिणाम स्वरूप मौसम बदल रहा है, गर्मी के दिनों में तापमान 50 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंच रहा है, भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदायें आ रही हैं। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को लेकर समाज में जागरूकता उत्पन्न करने की जरूरत है।
अपने सम्बोधन में समाजशास्त्र विभागाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र चौबे ने कहा कि आज तेजी से बढ़ते उपभोग के चलते ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ रही है। इसे पूरा करने के लिए ताप विद्युत गृह स्थापित किये जा रहे है, जिनमें कोयले का बहुत अधिक उपयोग होता है। कोयले के कारण भारी मात्रा में प्रदूषण हो रहा है। उन्होंने कहा कि आज उपभोग विकास का पैमाना बन गया है। विकसित देश अधिक ऊर्जा का उपयोग करते है और अधिक प्रदूषण फैलाते है। आवश्यकता और विलासिता के बीच अंतर को यदि हम नहीं समझेंगे तो पर्यावरण विनाश की दिशा में बढ़ते चले जायेंगे।
डॉ. जय प्रकाश साव ने पर्यावरण विषयक चिंता के वैश्विक संदर्भों का उल्लेख करते हुए फ्रांस में औद्योगिकीकरण के आरंभिक दौर में चले प्रतिरोधी आंदोलनों और विचारधाराओं के विषय में जानकारी दी। उन्होंने इस संदर्भ में रूसो के प्रकृति की ओर वापसी और आधुनिक विकास की अवधारणा के विरोधी लुड्डाइट आंदोलनकारियों के विचारों को रेखांकित किया। उन्होंने बीसवीं शताब्दी में पर्यावरण विनाश को सभ्यता के संकट के रूप में पहचानने के बाद विभिन्न राष्ट्रों द्वारा 1972 के स्टाकहोम सम्मेलन से लेकर रियो सम्मेलन, क्योटो प्रोटोकाल, जोहान्सबर्ग सम्मेलन, रियो-2, कार्बन व्यापार, विकसित देशों के दबाव इत्यादि का विस्तार से विवरण दिया।
कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ प्राध्यापक, डॉ. शीला अग्रवाल ने किया। विचार गोष्ठी का संचालन डॉ. ज्योति धारकर ने किया। अंत में धन्यवाद ज्ञापन डॉ. अंजली अवधिया ने किया। इस अवसर पर डॉ. नीरजा पाठक, डॉ. एम.ए. सिद्दीकी, डॉ. ए.के.खान, डॉ. श्रध्दा चन्द्राकर, डॉ. सुचित्रा गुप्ता, डॉ. एस.एन.झा, डॉ. पद्मावती, डॉ. वेदवती मंडावी, डॉ. राकेश तिवारी, डॉ. एस.डी. देशमुख, डॉ. रंजना शर्मा, डॉ. सुनीता मैथ्यू, कु. निधि शर्मा, कु. शोभारानी तथा छात्र-छात्रायें उपस्थित थीं।

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