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पुण्य से पुण्य बढ़ता है : विशुद्ध सागर

Sep 24, 2016

vishuddha-sagar-muniप्रदीप जैन बाकलीवाल/भिलाई। परमपूज्य आचार्य श्री विशुद्धसागर महाराज ने कहा कि जिस प्रकार व्यवहार में धन लगाने से धन बढ़ता है, उसी तरह पुण्य से पुण्य बढ़ता है। पुण्य से पुण्य का बंध होता है। बहिरंग के समर्थ न होने पर भी यदि अंतरंग उत्साह शक्ति प्रबल है तो शरीर की कमजोर शक्ति कोई मायने नहीं रखती। अपने आप काम होता है। उत्साह शक्ति होनी चाहिए। मुनिश्री ने कहा कि जिसकी उत्साह शक्ति भंग हो चुकी है, वह कितना ही मोटा आदमी हो, मंदिर की एक सीढ़ी नहीं चढ़ सकता। आत्मशांति की आकांक्षा है, आत्मानंद की आकांक्षा है तो जगत की आकांक्षाओं को विराम दे दो। जितने दुख, क्लेश हैं, अपने पुण्य को न देखते हुए इच्छाओं को देखने की वजह से हैं। इच्छाओं से इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हुई। न हो रही है। यह त्रिकालिक सिद्धांत है। आकांक्षा तुम विशाल कर सकते हो, परंतु वस्तु की प्राप्ति आकांक्षाओं से नहीं होती। वस्तु की प्राप्ति आपके पुण्योदय से होती है। पुण्य क्षीण है, आकांक्षाएं कितनी ही विशाल कर लो, कुछ भी नहीं मिलेगा। जिसका पुण्य प्रबल है, आकांक्षाएं न्यून है, वह विभूति से सम्पन्न है। जहां द्रव्य है ही नहीं, भूमि है ही नहीं, कुटुम्ब है ही नहीं, शुभ भोगने की कोई वस्तु नहीं है, वहां व्यर्थ में हम पाप का बंध क्यों कर रहे हैं? इतना ही तो निर्णय लेना है कि जो नहीं है, वह नहीं है। इतने समय में यदि परमात्मा का नाम लेता या फिर आंख बंद करके बैठ जाता तो परिणाम कुछ और होते। पर कितने ऐसे जीव हैं जो न शांत बैठ पा रहे हैं, न ही भगवान का नाम ले पा रहे हैं। 24 घंटे इधर-उधर के विचारों में तल्लीन हैं और अपनी आयु का नाश कर रहे हैं। पुण्य का नाश कर रहे हैं।
जब तक भीतर के निर्णय नहीं करोगे, धर्म के क्षेत्र में धर्म करना प्रारम्भ करके आप बैठ भी गए पर धर्म को समझ नहीं पाएंगे। धर्म के क्षेत्र में धर्मात्मा के क्षेत्र में धर्म दिखाई क्यों नहीं दे रहा है? क्योंकि तुम धर्म के पास नहीं गए, तुम क्षेत्रों के पास चले गए। धर्मात्मा के पास संवेदनाएं नष्ट हो रही है। एक धर्मात्मा किसी को दुखी देखकर उसे हाथोंहाथ उठाता है। वहां तुम पूछ रहे हो कि ये कौन सी जाति का आदमी है। अहिंसा में जातियां कहां से आ गई? तुम धर्म के नजदीक ही नहीं हो। सम्यक दृष्टि जीव सुअर के बच्चे को भी नाली से उठाकर गोद में रखने वाले होते हैं। धर्म के पास जातियां नहीं होती, पंथ नहीं होते, आमनाएं नहीं होती। धर्म के पास मात्र वस्तु स्वभाव होता है। उन्होंने कहा कि आपको ग्रंथ नहीं बदलना है, अपनी ग्रंथियों को तोडऩा है। धर्म को नहीं बदलना है, धर्म के मर्म को समझना है। पक्षों, पंथों, परंपराओं को धर्म न कहा जाए। अपने व्यक्तिगत चिन्हों को धर्म न कहा जाए। अपनी पहचान को धर्म न बनाया जाए। धर्म में कोई पहचान नहीं होती। धर्म को पहचाना जाता है। पाप को खोज लीजिए। पाप से भी पुण्य होता है, पर इसे कोई जानता नहीं। यह लोभ पाप प्रगति है। इस लोभ पाप प्रगति के उदय पर ही वात्सल्य है। वह लोभ कर्म की प्रगति भी मंद होती है तो प्रशस्त रूप में होती है। प्रशस्त रूप में होती है तो पूर्ण रूप कहलाती है, पर उदय तो उसका पाप रूप ही होता है।
प्रदीप जैन बाकलीवाल एवं मंत्री प्रशांत जैन ने मंच संचालन किया। त्रिवेणी जैन तीर्थ में श्री 1008 पाश्र्वनाथ भगवान के मंगल अभिषेक, शांतिधारा, देवशास्त्र गुरु की पूजन पश्चात् आचार्य श्री विरागसागर महाराज जी के तैलचित्र पर प्रभात जैन, अशोक जैन, आजाद जी, प्रशांत, मुकेश जैन ने दीप प्रज्जवलन किया। जहाँ परमपूज्य आचार्य श्री 108 विशुद्धसागर महाराज जी को संसघ श्रीफल भेंट कर मंगल आशीर्वाद मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छग राज्य, तथा भिलाई दुर्ग के अनेक भक्तों ने नमन कर मंगल आशीर्वाद ग्रहण किया। जहां पूज्य मुनिराज अर्जितसागर महाराज जी ने गुरुवर का नमनकर सभी को अपनी मंगलवाणी से धर्म के मार्ग में शिक्षा और संस्कार के साथ जुडऩे के लिए कहा।

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