नई दिल्ली। गलवान घाटी में ताजा झड़पों के बाद मीडिया और सोशल मीडिया पर दोनों तरफ से काफी कुछ कहा जा रहा है। ऐसे में यह जरूरी ह जाता है कि वास्तविक हालातों के बारे में कुछ जानकारी हम सभी को हो। लेफ़्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) संजय कुलकर्णी कहते हैं कि सेटेलाइट तस्वीरें धोखा दे सकती हैं। इन्हें ठीक से पढ़ने और समझने की जरूरत होती है जिसके लिए अनुभव चाहिए। धोखा देने के लिए वहां गत्ते की गाड़ियां और तम्बू भी लगा सकता है जो सैटेलाइट तस्वीरों में असली जैसे दिख सकती हैं।कुलकर्णी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर 1982 से 1984 तक तैनात थे। फिर 2013 से 2014 तक उन्होंने भारतीय सेना के 14 कोर के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ के तौर पर भी काम किया। 2014 से 2016 तक वो सेना के इंफ़ैन्ट्री विभाग में डीजी के पद पर भी रहे हैं। दोनों देशों की सीमा पर जिस इलाक़े से तनाव की ख़बरें आ रहीं है उन इलाक़ों में उन्होंने लंबा समय बिताया है और अच्छी समझ रखते हैं।
लेफ़्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णी (अवकाश प्राप्त) ने बीबीसी को बताया कि सैटेलाइट इमेज को पढ़ने वाला अच्छा होना चाहिए, नहीं तो ग़लतियां हो सकती हैं। दूसरी बात ये कि चीन भारत को बुद्धू ना बना रहा हो। ऐसा ना हो कि गत्ते की गाड़ी बना कर रखा हो और तस्वीर में बस एक छाया दिख रही हो। सैटेलाइट तस्वीरों को ठीक से पढ़ने वाला नहीं हुआ तो वो हर छाया को गाड़ी या तंबू ही समझ सकता है।
लद्दाख एक ऊंचाई पर बसे रेगिस्तान जैसा है। वहाँ ज्यादा पेड़ पौधे हैं न ही नदी या पहाड़ है। इसलिए वहाँ सिर्फ़ परछाई होती है। जो तस्वीरों का सही जानकार होगा, उसको पता होगा कि किसी देश की सेना कैसे तंबू लगाती है, बंकर कैसे बनाती है, गाड़ियों की तैनाती कैसे करती है। इन सबको देख कर आसानी से पता लगाया जा सकता है कि निर्माण कार्य हो रहा है या नहीं। इसके लिए सैटेलाइट तस्वीरों की रेजोल्यूशन भी अहमियत रखती हैं। फ़िलहाल जो तस्वीरें टीवी चैनलों और अख़बारों में दिख रही है उसमें बहुत क्लीयर कुछ नहीं कहा जा सकता। अभी सिर्फ़ ये पता चल रहा है कि हाईवे जी-219 के पास चीनी सेना का जमावड़ा है।
वे बताते हैं कि हमें ये समझना होगा कि डिसएंगेजमेंट होगा तो ही डि-एस्कलेशन होगा। दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। डिसएंगेजमेंट का मतलब है सेनाएँ आपस में आमने-सामने ना हों और तभी तनाव दूर होगा। इन ताज़ा तस्वीरों को देख कर लग रहा है कि दोनों सेनाओं के बीच में दूरी है।
लेकिन इन तस्वीरों की तुलना बीते दिनों की तस्वीरों से करने की ज़रूरत होगी। मसलन किसी भी नतीजे पर पहुँचने से पहले ये देखना होगा कि एक महीने पहले की तस्वीरें उसी इलाक़े की कैसी दिख रही थीं। कुछ सैटेलाइट 15 दिनों में इमेज लेते हैं, कुछ 21 दिनों में। उसके बाद ही पता लगाया जा सकता है कि दोनों समय में ग्राउंड पर कितना फ़र्क़ आया है। पहले कितने टैंक दिखे थे और अब कितने हैं. पहले वहाँ कितनी गाड़ियां दिख रही थी और अब कितनी हैं। तभी वास्तविक स्थिति का पता लगाया जा सकता है।