‘शव’ शब्द को लेकर आध्यात्म में अनेक बातें कही गई हैं. कुछ मतों में शव को शिव का अपभ्रंश माना गया है. शिव का एक अर्थ शून्य भी है. शून्य का मतलब है – वो, जो नहीं है. इस तरह से जीवन शव पर आकर स्थिर हो जाता है. इसके बाद जीवन नहीं है. पर यही शव जीवन की राह भी बताता है. श्मशान में शव के पास बैठकर लोगों में अनासक्ति के भाव आ सकते हैं. श्मशान में बैठकर जीवन और शरीर की नश्वरता का बोध भी होता है. इसे श्मशान वैराग्य भी कहा गया है. शव, फिर चाहे वह कितने भी प्रिय व्यक्ति का क्यों न हो, उसे नष्ट करने का विधान है. प्राचीन काल में कुछ मुल्क ऐसे भी हुए हैं जहां शव को संरक्षित रखने के प्रयास किये गये. पर इस कोशिश की व्यर्थता सामने आने के बाद इसपर विराम भी लगा है. आधुनिक वैज्ञानिक समाज जानता है कि अंतिम संस्कार मृतक को स्वर्ग पहुंचाने के लिए नहीं बल्कि शव से मुक्ति पाने के लिए किया जाने वाला एक संस्कार है. इसे पूरे सम्मान के साथ करते हुए हम मृतक की स्मृतियों को संजो लेते हैं. शव को रखा नहीं जा सकता, इसका कोई अर्थ नहीं है. कोई शव अग्नि को समर्पित कर देता है तो कोई उसे धरती मां को लौटा देता है. ऐसे भी लोग हैं जो मृत शरीर को पशु-पक्षियों के भोजन के लिए छोड़ देते हैं. शवदाह के लिए कहीं लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है तो कहीं गोबर के कंडों का. अब बिजली के शवदाह गृह इसकी जगह ले रहे हैं. पर यही शव जब विवाद में पड़ जाए, जब उसका अंतिम संस्कार करना मुश्किल हो जाए, तो क्या हो? बस्तर में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पर बवाल हो रहा है. यहां ईसाई समुदाय के लोगों को शव दफ्नाने के लिए गांव में जगह नहीं मिल रही. कहा जा रहा है कि इससे आदिवासियों के देवी-देवताओं की शक्ति क्षीण हो रही है. यह किसके दिमाग की उपज है, कहना मुश्किल है पर फिलहाल यह मुद्दा बड़ा बना हुआ है. आदिवासी बस्तर में जब शवों पर बवाल शुरू हुआ तो ईसाई मत को अपना चुके कुछ लोगों में श्मशान वैराग्य के भाव जाग उठे. उन्होंने इसे खत्म करने का रास्ता भी शवों से ही निकाला. अब वे आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार ही शवों का अंतिम संस्कार करेंगे. समाज उन्हें आदिवासी समाज में स्वीकार करने को तैयार है. इसकी एक पूरी प्रक्रिया होगी. आस्था वैसे भी अंतर्मन का विषय है. उसका दिखावा जरूरी नहीं है. लोग अंदर से कुछ और, बाहर से कुछ और हो सकते हैं. पर लोक पम्पराओं का पालन यदि शांति के लिए जरूरी है, तो यही सही. ऐसी पहल करने वाले को साधुवाद. धर्मगुरुओं और समाज प्रमुखों के पास अपना-अपना स्वार्थ और अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होंगी पर समाज में शांति और सुरक्षा गृहस्थों की प्राथमिकता होनी चाहिए.