छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने नवा रायपुर में कबीर शोध संस्थान स्थापित करने की घोषणा की है. कबीर जयंती पर हेमचंद यादव विश्वविद्यालय ने भी एक प्रस्तुतिकरण प्रतियोगिता का आयोजन किया. 2018 में उत्तरप्रदेश के संतकबीरनगर में भी कबीर शोध संस्थान की नींव रखी गई. यहां मगहर में कबीर की कर्मभूमि है. यहीं वह गुफा है जहां वे तपस्या करते थे. यहीं उनका मजार और उनकी समाधि है. कबीर की उनके समय में भी ज्यादा लोगों ने नहीं सुनी. कबीर को हम सभी ने पढ़ा है. स्कूली किताबों में कबीर के दोहे होते थे, साखियां होती थीं और वार्षिक परीक्षा में इसपर सवाल भी किये जाते थे. कबीर से हमारा संबंध यहीं तक सीमित था. इससे ज्यादा सोचने की जरूरत भी नहीं थी. मंदिर तो हम जाते ही थे, सिर पर रुमाल रखकर गुरुद्वारे का लंगर भी खाते थे और इफ्तार की दावत में भी शामिल हो जाया करते थे. 24-25 दिसम्बर की दरम्यानी रात गिरिजाघर जाकर होली ब्रेड और वाइन भी चख लेते थे. कभी घर वालों ने नहीं टोका. पर जमाना बदल गया है. पिछले 15-20 साल में इतना जहर भरा गया है, इतनी वैमनस्यता फैलाई गई है कि अब खान-पान तक में परहेज किया जाने लगा है. ऐसे में एक बार फिर कबीर की ओर लौटने का वक्त आ गया है. कबीर ने हमेशा रूढ़िवादिता की आलोचना की. वो कहते थे कि यदि “पत्थर पूजने से भगवान मिलते हैं तो वे पहाड़ पूजने को तैयार हैं”. इसी तरह मुसलमानों से वो कहते – “कांकर पाथर जोरी कै मस्जिद लियो बनाए, ता पर चढ़ मुल्ला बांग दै क्या बहरा हुआ खुदाय.” आज लगभग सभी पंथों के अनुयायी पूजा-पाठ के नाम पर शोर शराबा करते हैं. कबीर ने ईश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग भी दिखाया. उन्होंने सभी जीव जंतुओं में ईश्वर के दर्शन कर उनकी सेवा का मंत्र दिया. मौजूदा माहौल में कबीर इसलिए भी प्रासंगिक हो जाते हैं. कबीर ही क्यों, स्वामी विवेकानंद को ही लें तो उनके दर्शन पर हमें गर्व भले ही हो हम उन्हें मानते कहां हैं? सभी को पता है कि स्वामीजी ने शिकागो की धर्मसभा में हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करते हुए वेदान्त दर्शन का प्रचार किया था. पर हमने अपनी सुविधा के लिए उस मूल्य वाक्य को भुला दिया जो स्वामीजी के वक्तव्य का आधार था. यह वाक्य था “उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम.” यह विचारधारा धरती पर रहने वाले समस्त जीवों को एक ही परिवार से जोड़ती है. स्वामीजी ने एक अंग्रेज महिला को अपनी मां के रूप में स्वीकार किया तो अनेक विदेशी महिलाएं उनसे कन्या का स्नेह पाती रहीं. पर आधुनिक भारत को इससे क्या? हम कभी हिन्दू तो कभी सनातन की बातें करते हैं. मतलब इनमें से किसी का नहीं पता. आज हम कोई ओहदा मिलने अथवा चार पैसा कमा लेने पर अपने सगे सम्बंधियों तक को अलग-थलग कर देते हैं. कुल-गोत्र तक बेमानी हो जाते हैं. फिर धार्मिक पहचान की मोहताजी क्यों?