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पसमांदा होने का दर्द : जात भी गंवाई और भात भी नहीं खाया

Jul 28, 2023
Centre woes Pasmanda Muslim Community

सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से बचने के लिए पंथ बदलने वाले अधिकांश लोगों पर यह कहावत लागू होती है – “जात भी गंवाई और भात भी नहीं मिला”. यह बात पसमांदा मुसलमानों पर भी लागू होती है. इस्लाम भारत में शासकों का मत या पंथ रहा है. मुगल शासनकाल में बड़ी संख्या में देश के दलित समुदाय के लोग इस्लाम को मानने लगे. उन्हें लगा था कि इस्लाम को अपनाने के बाद उनका भी सम्मान बढ़ेगा, सामाजिक स्थिति बदलेगी. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. वो यहां भी दलित थे और वहां भी दलित ही बने रहे. इन्हें पसमांदा मुसलमान कहा जाता है. देश के मुस्लिम आबादी में इनकी संख्या 85 प्रतिशत है. दरअसल, भारतीय मुस्लिम समाज हिन्दू समाज का ही “क्लोन वर्जन” है. पश्चिम या मध्य एशिया से आने वाले मुसलमानों में सैयद, शेख, मुगल, पठान आदि आते हैं. भारत में सवर्ण जातियों से मुस्लिम बनने वालों को भी उच्च वर्ग में शुमार किया जाता है. इन्हें मुस्लिम राजपूत, तागा या त्यागी मुस्लिम, चौधरी या चौधरी मुस्लिम, ग्रहे या गौर मुस्लिम, सैयद ब्राह्णण जैसे उपनाम मिलते हैं. पर बड़ी संख्या में मतांतरित निचली या पिछड़ी जाति के लोगों को वहां भी हेय दृष्टि से ही देखा जाता है. इनमें कुंजरे (राइन), जुलाहा (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फकीर (अल्वी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवाराती), लोहार-बढ़ाई (सैफी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वनगुर्जर, आदि शामिल हैं. इन्हें ही पसमांदा कहा जाता है. लोकसभा चुनाव 2024 से पहले भाजपा इन्हीं पसमांदा मुसलमानों को साधना चाहती है. देश भर के मुस्लिमों को भाजपा से जोड़ने के लिए चलाया जा रहा मोदी-मित्र अभियान अब छत्तीसगढ़ पहुंच चुका है. पार्टी का दावा है कि पिछले एक माह में उसने यहां 3000 से ज्यादा मोदी-मित्र बना लिये हैं. जिन पांच लोकसभा सीटों में यह मुहिम शुरू की गई है, उनमें रायपुर, बिलासपुर, राजनांदगांव, सरगुजा और बस्तर संसदीय क्षेत्र शामिल हैं. इसके अलावा पसमांदा मुस्लिमों को साधने के लिए 27 जुलाई को दिल्ली से स्नेह-यात्रा निकल रही है. यह यात्रा दिल्ली से शुरू होकर उड़ीसा से होते हुए छत्तीसगढ़ भी अाएगी. भाजपा की इस कोशिश को लेकर पसमांदा समाज के मुखिया खुश नहीं हैं. ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष का मानना है कि पसमांदा मुसलमानों का विकास पांच किलो गेहूं-चावल से नही हो सकता. इनका मर्ज अलग है, इसलिये दवा भी अलग होनी चाहिए. 80 फीसदी आबादी वाला पसमांदा मुसलमान वर्ष 1950 से ठगा जा रहा है जब संविधान के अनुच्छेद 341 पर पाबंदी लगा दी गई थी. पहले उन्हें लगा था कि प्रधानमंत्री मोदी की सोच अलग है. राहत जरूर मिलेगी. पर एक साल बीत गया और सरकार अब भी केवल पिछली सरकारों को कोस रही है. कोई कार्ययोजना नहीं बनी. स्नेह यात्रा को भी समाज एक मजाक ही समझता है. उन्हें सरकार से किसी ठोस योजना की उम्मीद है, ताकि पसमांदा समाज को उसके हिस्से का सम्मान प्राप्त हो सके.

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