हेमचंद यादव विश्वविद्यालय में बैचलर ऑफ आर्ट्स के द्वितीय वर्ष के परीक्षार्थियों में से केवल एक तिहाई उत्तीर्ण हो पाए. 24,382 ने परीक्षा दिलाई थी जिसमें से 9419 फेल हो गए और 6695 को पूरक दिया गया. पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के परिणाम इससे भी खराब हैं. वहां के नतीजे 28 फीसदी रहे. बिलासपुर विश्वविद्यालय के नतीजों ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया जहां केवल चौथाई विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हो पाए. सरसरी तौर पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि बीए के विद्यार्थी पढ़ाई को लेकर ज्यादा लापरवाह हैं. पर लापरवाही इसकी इकलौती वजह नहीं है. शेष विषयों में प्रायोगिक पर फोकस होने के कारण ज्यादा संख्या में विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाते हैं. आधे से ज्यादा विद्यार्थी सैद्धांतिक विषयों में पिट रहे हैं. दरअसल, हम हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था विद्यार्जन की एक महत्वपूर्ण इकाई को लंबे समय से नजरअंदाज कर रही है. यह इकाई है भाषा. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तरी टाइप की परीक्षा ने पहले ही इसे काफी नुकसान पहुंचा दिया था. अब सोशल मीडिया इस विधा को पूरी तरह से हाशिए पर धकेलने का सामान कर रही है. चिंता का विषय यह नहीं है कि भाषा खराब हो जाएगी तो साहित्यजगत का नुकसान हो जाएगा. इससे भी बड़ी चिंता का विषय है भाषा के अभाव में संप्रेषण कला का निरंतर ह्रास. आप ज्ञान के भंडार हैं पर अपनी बात को सही ढंग से रख नहीं सकते, समझा नहीं सकते तो आपका ज्ञान आपके साथ ही चला जाएगा. आज सबसे ज्यादा रोजगार शिक्षा और विपणन के क्षेत्र में है. डिग्री चाहे एमटेक-बीटेक की हो, पर यदि लाखों में सैलरी चाहिए तो यह आपको केवल बाजार का विशाल क्षेत्र ही दे सकता है. बाजार भाषा और वाकपटुता से चलता है. चार लोग मिलकर चार करोड़ लोगों के लिए उत्पाद बनाते हैं. 40 हजार लोग इसे आगे बढ़ाने और बेचने का काम करते हैं. आप भले ही मेरिट में पास हो जाएं पर यदि अध्यापक, व्याख्याता या प्राध्यापक बनना है तो जो सबसे बड़ी विधा आपके काम आएगी वह है आपकी भाषा और संप्रेषण कला. विपणन का सम्पूर्ण क्षेत्र तो इसी पर टिका हुआ है. यदि आपके पास बेचने के लिए कुछ न हो तो आप प्राचीन ग्रंथों पर प्रवचन से भी अपना करियर बना सकते हैं. कुमार विश्वास, आशुतोष राणा जैसे असंख्य लोग हैं जो केवल अपनी भाषा और सम्प्रेषण कला के कारण जाने जाते हैं. भाषा सैद्धांतिक विषयों का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा है. पर कालेजों में बच्चों को फेल करने मात्र से यह संकट दूर नहीं होने वाला. बिन्दुवार उत्तर लिखने के चलन में नम्बर केवल बिन्दुओं के मिल जाते हैं. परीक्षार्थी ने अनुच्छेद में लिखा क्या है, इसकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. भाषा पर पकड़ ढीली होने की शुरुआत यहीं से हो जाती है. शिक्षा विभाग गंभीर है तो उसे इस परिपाटी को बदलना होगा. वरना साल नहीं, जीवन नष्ट हो जाएगा.