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लेख : तेजी से बदल रहे परिवार के मायने

Nov 14, 2014

principal MJ Collegeडॉ कुबेर गुरुपंच/परिवार के विकास का एक प्रयोग इस सदी के आरंभ में ‘कम्यून लार्जर फैमिलीÓ के रुप में किया गया था। साम्यवादी व्यवस्था के शुरुआती दिनो में प्रयोग चले भी। जहाँ साम्यवादी व्यस्था नहीं थी, वहां सहकारी प्रयोगों में उसका प्रभाव दिखाई दिया। आठवां दशक पूरा होने तक साम्यवादी व्यवस्था दम तोडऩे लगी। उसके साथ ‘कम्यूनÓ और ‘सहकारी जीवन के प्रयोग भी लडख़ड़ा गये। परिवार संस्था का आधार खिसकने लगने का यह एक उपलक्षण मात्र है। मुख्य समस्या इसके अस्तित्व पर मँडराने लगे संकट और गहराते जाने की है। संकट का स्वरुप कुछ इस तरह है। इस शताब्दी का उत्तराद्र्ध शुरु होने तक भारत में संयुक्त परिवारों का प्रचलन लोकप्रिय था। माता पिता अपने बच्चों और उनकी संतानों के साथ मजे से रहते थे। तीन और उससे ज्यादा पीढिय़ां एक ही परिसर में रहती, एक ही चौके में बना भोजन करतीं और सुख-दु:ख को हार्दिक स्वीकृति से निभाती चलती थीं। छठवें-सातवें दशक में संयुक्त परिवार बिखरने लगे। ये अपवाद पहले भी थे, जिनमें पति पत्नी और उनके बच्चे मां-बाप से अलग बस जाते थे, लेकिन अनुपात बीच-पच्चीस प्रतिशत ही था। गांव, समाज और रिश्तेदारी में उन्हे निंदित भाव से देखा जाता था। सातवें दशक में संयुक्त परिवार की टूट को सहज भाव से देखा जाने लगा, क्योंकि वह यत्र-तत्र बहुतायत में घटने लगी थी।
बीस-पच्चीस वर्षों में संयुक्त परिवारों का काम तमाम हो गया। अब बारी एकल परिवारों की है। जिन्हे ‘वास्तविकÓ और ‘मूलÓ जैसे विशेषणो से संबंधित किया जाता है। पति -पत्नी पहले भी कामों में हाथ बटाते और एक दूसरे के दायित्वों को संभालते हुए स्वतन्त्र व्यक्तित्व बनाये रखते थे। परन्तु अब स्वतन्त्र का आग्रह अलग रुप ले चुका है। अब इसका मतलब ही ‘अहंÓ से शुरु हो रहा है। अब पति-पत्नी के निजी एकांतिक संसार की तरह बच्चो में भी प्राइवेसी का आग्रह बढऩे लगा है।
महानगरों में बिना विवाह के साथ रहने और संतान को जन्म देने की प्रवृत्ति भी जड़ें जमाने लगी हैं। इस तरह का सहजीवन जब तक मन करे साथ रहने और बाद में अलग हो जाने की छूट देता है। उस स्थिति में किसी का भी किसी के प्रति दायित्व नहीं बनता। न आपस में और न ही बच्चो के प्रति। ये प्रवृत्तियां परिवार संस्था पर मंडराते जा रहे संकट की पहचान हैं। जिस आत्मियता, स्नेह और उत्सर्ग की भावना ने उसका आधार रखा वही लुप्त हो गया तो संकट की विभीषिका का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
अपनों के साथ सुकून भरे कुछ पलों को बिताने का मजा ही कुछ और होता है। लेकिन अब धीरे-धीरे अपनों की भी परिभाषा बदलने लगी है। पहले दूर-दूर के रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों को मिलकर अपनों का यह दायरा बहुत विशाल होता था, लेकिन वक्त के साथ यह दायरा सिमट कर केवल अपने परिवार तक ही सीमित रह गया। किसी भी समाज में बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इसे नकारात्मक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन यह हमारे लिए अलार्मिंग सिचुएशन है। इसे देखकर हम जितनी जल्दी संभलेंगे, हमारे रिश्तों के लिए यह उतना ही अच्छा रहेगा।
कहां है समय- आज की लाइफस्टाइल ऐसी होती जा रही है कि चाहकर भी लोग अपने सामाजिक संबंधों के लिए वक्त नहीं निकाल पाते। एकल परिवारों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। वर्किंग वूमन के कंधों पर दोहरी जिम्मेदारियां हैं। ऐसी स्थिति में उसके पास अपने घर पति और बच्चे के लिए भी समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे हालात में वह अपनी सोशल लाइफ पर भी ध्यान नहीं दे पाती। भारतीय समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। पहले औरतें घर पर ही रहकर सोशल वर्किंग की सारी जिम्मेदारी बहुत अच्छी तरह निभा लेती थीं। लेकिन आज की वर्किंग वुमन से इस बात की उम्मीद करना बेमानी है कि वह पहले की तरह अपने हर रिश्तेदार से निरंतर संपर्क में बनी रहे। न्यूक्लियर फेमिली ने हालात और भी बदतर बना दिया है। इसलिए सामाजिक संबंधों के मामले में अब लोग ज्यादा सलेक्टिव होने लगे हैं। पहले किसी रिश्तेदार को नापसंद करने के बावजूद भी लोग उससे मिलते जुलते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब लोग केवल उन्हीं रिश्तेदारों से मिलना पसंद करते हैं जिनसे वैचारिक स्तर पर समानता होती है। अब लोग रिश्तेदारों की तुलना में फैमिली फ्रेंड्स को ज्यादा अहमियत देने लगे हैं। क्योंकि उनके साथ संबंध निभाने की मजबूरी या ज्यादा अपेक्षाएं नहीं होतीं। आजकल आपसी हितों पर आधारित सामाजिक संबंध ज्यादा पसंद किए और निभाएं जाते हैं। मिसाल के तौर पर अगर कोई व्यक्ति मार्केटिंग या विज्ञापन के क्षेत्र में जुड़़ा है तो वह अपने रिश्तेदारों में भी वैसे लोग से मिलना जुलना ज्यादा पसंद करेगा, जिनके साथ संबंध रखने पर उसे अपनी प्रोफेशनल फायदा हो। पारिवारिक रिश्तेदारों का ढांचा थोड़ा कमजोर जरूर हुआ है, लेकिन इसके विकल्प के रूप में क्लब, सोशल, आर्गेनाइजेशन, किटी पार्टीज जैसे समूह सामने आने लगे हैं। किसी भी सामाजिक संबंध के दायरे को दो भागों में बांटा जाता है- इनर और आउटर सर्कल। आउटर सर्कल का दायरा बहुत बड़ा होता है, लेकिन इसमें बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जिनका साथ हमें अच्छा लगता है, और जिनके सुख-दु:ख में हम हमेशा साथ खड़े होते हैं। आज वक्त की कमी के कारण लोग संबंधों को आउटर सर्कल पर ध्यान देने के बजाय इसके इनर सर्कल को मजबूत बनाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
हाल ही में भारत के ग्रामीण और महानगरीय समाज का तुलनात्मक अध्ययन करवाया गया था। उसमें यह पाया गया कि महानगरों में रहने वाले बुजुर्गों में अल्जाइमर पीडि़तों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, पर गांवों के बुजुर्गों को ऐसी समस्या नहीं थी। इसका कारण सिर्फ शहरों का अकेलापन था। गनीमत है कि सामाजिक संबंधों के मामले में आज भी पश्चिमी देशों की तुलना में हमारी स्थिति बेहतर है। अच्छा सामाजिक संबंध हमारे लिए एनर्जी का काम करता है। इससे हमारी अच्छी सेल्फ इमेज विकसित होती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
(प्राचार्य, एमजे कालेज, भिलाई)

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