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शास्त्रीय कला की एकलव्य : राखी

Jan 11, 2015

rakhi roy, nrityaguru, saroj pandeyलघु भारत भिलाई ने सभी विधाओं और प्रतिभाओं को पनपने का मौका दिया। यहां न केवल गंगा-जमुनी संस्कृति धरती पर अवतरित होकर पुष्पित-पल्लवित होती रही अपितु पूरे देश में बिखरे संस्कृति के रंगों को भी इसने खूब सहेजा। यहां से उठकर अनेक लोकरंगों ने विश्व मंच को नए रंग भी दिए। इसी भिलाई की धरती ने अपनी कोख से एक ऐसा रत्न भी उगला जिसे शास्त्रीय नृत्यकला में एकलव्य ही संज्ञा दी जा सकती है। more
nritya guru Rakhi Royबाक्सिंग को भिलाई में लाने वाले आरएन बनर्जी की दुहिता राखी का विकास वैसे तो एक सामान्य बच्ची की तरह ही हो रहा था किन्तु एक मायने में वह औरों से अलग थी। उस दौर में बच्चे अंग्रेजी की कविताओं पर परफार्म किया करते थे। टाकीजों तक उनकी पहुंच नहीं थी। टीवी तो था ही नहीं। ऐसे समय में प्रख्यात भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगना सोनल मानसिंह (अब पद्मभूषण) का भिलाई आना हुआ। बंगाली समाज में थिएटर के प्रति एक गहन रुचि आरंभ से ही रही है। उनका परिवार भी नेहरू सांस्कृतिक भवन में आयोजित इस कार्यक्रम को देखने पहुंचा। इस एक कार्यक्रम ने नन्ही राखी के मन मेें भरतनाट्यम के प्रति ऐसा अनुराग पैदा किया कि उनकी जिन्दगी ही बदल गई। उन दिनों इस विधा की शिक्षा देने वाले प्रोफेशनल्स नहीं थे। जब जो मिला, जिससे जितना सीखा उसे उन्होंने एकलव्य की तरह ही आगे बढ़ाया। आरंभिक तालीम गुरु केशवन पिल्लै से हासिल की तो इसके बाद जब जिस नृत्य गुरू के पांव भिलाई में पड़े, उन्होंने उससे तालीम ली। बहुत कम उम्र में विवाह हो गया। इसके बाद नृत्य अभ्यास पर मानो ब्रेक सा लग गया। पर फिर पति की प्रेरणा से उन्होंने अपनी साधना जारी रखी और यह सिलसिला आज भी जारी है।
इस विद्यार्थी पर है अभिमान
राखी रॉय ने नृत्यधाम की स्थापना की और भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, कथक का विधिवत प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया। आज उनके नृत्यधाम में 350 से अधिक बच्चे हैं। उनकी कोशिश रही है कि कम से कम खर्च में बच्चे इस विधा को सीख सकें, इसकी प्रस्तुतियां दे सकें, प्रतियोगिताओं में शामिल हो सकें। आज वे गर्व के साथ कह सकती हैं कि साधारण परिवार के बच्चे भी उनके पास शास्त्रीय नृत्य सीख रहे हैं और देश में अपना स्थान बना रहे हैं। राखी कहती हैं कि वैसे तो गुरु सभी को समान शिक्षा देता है किन्तु कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जिनमें नैसर्गिक प्रतिभा भी होती है। एक ऐसी ही छात्रा है प्रणति मित्रा। इस बच्ची पर उन्हें अभिमान है। उसने सीसीआरटी में अपनी चमक दिखाई और पोगो ने उसे चुन लिया। वह देश भर से चुनी गई 14 विधाओं के श्रेष्ठ कलाकारों में शामिल हुई। इससे भी बड़ी उपलब्धि यह कि इन 14 बच्चों मेें प्रणति का नाम दो बार आया। एक बार भरतनाट्यम के लिए तो दूसरी बार कुचिपुड़ी के लिए। इन 14 कलाकारों के बीच हुई प्रतिस्पर्धा में भी उसने दूसरा स्थान हासिल किया।
नृत्य सबका अधिकार
राखी कहती हैं कि नृत्य एक नैसर्गिक कला है और इसपर सबका समान अधिकार है। साधन-संसाधनों के अभाव में कला का गला नहीं घोंटा जा सकता। उन्होंने लोगों को साधारण वस्त्रों में शास्त्रीय नृत्यों को प्रस्तुत करते देखा है। हालांकि प्रतियोगिताओं के लिए वेशभूषा एवं साज सज्जा जरूरी है किन्तु यही नृत्य का अंत नहीं है। नृत्य, विशेषकर शास्त्रीय नृत्य के विषय में वे क्या कहती हैं – यहां प्रस्तुत है खुद उन्हीं के शब्दों में

मेरे देश के कलाश्रेष्ठों को नमन, विद्यार्थियों को स्नेह और सुधिजनों का वंदन…
आजकल देश में स्वच्छता अभियान की चर्चा है। भौतिक संसार धुले, साफ दिखे यह तो आवश्यक है ही, इसी संदर्भ में मानव को केंद्र में रख समाज की आत्मा की स्वच्छता एवं शुद्धिकरण की भी आवश्यकता मानती हूं।
शैशवकाल और किशोरावस्था जीवन की नींव है और हम भारतीय शास्त्रीय नृत्य गुरु पूरे देश में इसी स्तर पर कार्य कर रहे हैं। शास्त्रीय नृत्य केवल एक विधा नहीं, कला नहीं, एक संपूर्ण जीवन दर्शन है। इसमें रस है, आनंद है, तृप्ति है। शास्त्रीय नृत्य विचारों की पवित्रता का पाठ है और अभ्यास भी। यह भक्ति और ईश्वर से जुडऩे का माध्यम भी है जिसमें आस्था, साधना और अभ्यास का महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
मैं जब बालिका थी, संगीत और नृत्य की शिक्षा ले रही थी, अभ्यास के दौरान स्वयं को जीवन और परिवेश के साथ सामंजस्य स्थापित करते महसूस करती थी।
अकसर जब मेरे विद्यार्थी क्लास में आते हैं तब मैं उन्हें थका-हारा, बुझा हुआ सा पाती हूं। शायद एक अवैज्ञानिक जीवन शैली उनके चित्त पर भारी होती है। पर नृत्य अभ्यास के चंद मिनटों में ही उनकी थकान काफूर हो जाती है। चंचल-चपलता उनकी भाव भंगिमाओं में अटखेलियां करने लगती हैं। उनके चेहरे सूरजमुखी के फूल की तरह अपना सौन्दर्य बिखेरते हुए दमकने लगते हैं। जैसे-जैसे अभ्यास आगे बढ़ता है उनमें बढ़ रही ऊर्जा और जीवन्तता किसी हिरणी की तरह कुलांचे मारते आगे बढ़ती है। भीतर कहीं से उपजती इस ओज को सहज ही महसूस किया जा सकता है।
मेरा मानना है कि किसी भी कला में अभ्यासरत विद्यार्थी अपने भीतर के कलुष को धो लेता है और शास्त्रीय नृत्यों की तो बात ही क्या.. इससे व्यक्ति तरोताजा हो जाता है और ऊर्जावान हो जाता है।
भरत नाट्यम, कुचीपुड़ी, मोहिनी अट्टम आदि नृत्य से श्रेष्ठ जीवन मूल्य, अनुशासन, भक्ति और चरित्र का निर्माण होता है। आप आशावान हो जाते हैं। यह एक योगविद्या भी है। मैने इन विद्यार्थियों का स्कूल, कालेजों में शैक्षणिक स्तर भी सुधरते देखा है। बस आवश्यकता है पालकगण समाज, देश में इन विधाओं को प्रोत्साहित करें। बालिकाओं में भविष्य की नारी है और इनको सुसंस्कृत, स्वाभिमानी और श्रमशील बनाना नृत्यगुरु का लक्ष्य होता है। अब तो विदेशों में भी भारतीय जीवन दर्शन, लोक कला, वैदिक संस्कृति, परिवार परम्परा, योगदर्शन की चर्चा जोरों पर है तो हम क्यों नहीं इस नृत्य कला का संरक्षण, संवर्धन और प्रसार करें।
आप सभी का जीवन छंद, लय, ताल और रस से परिपूर्ण रहे..
समर्पित आप सबको!!

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