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लकड़ी का 102 फीट सिंगल पीस चेन

Mar 16, 2015

shravan chopkar in limca book of recordsभिलाई। सुनने में अजीब लग सकता है कि यह सिंगल पीस चेन क्या बात हुई? तो बात यह है कि लकड़ी के एक लगभग 10 किलो वजन के टुकड़े को इस तरह तराशा गया है कि उसकी कड़ियां बन गई हैं, वह भी एक दूसरे में पिरोई हुई। आप कहेंगे असंभव। लकड़ी या किसी भी अन्य वस्तु को बिना काटे-जोड़े एक दूसरे में पिरोया कैसे जा सकता है पर इसे संभव कर दिखाया है श्रवण चोपकर ने। इसके लिए उनका नाम लिमका बुक और इंडिया बुक आॅफ रिकार्ड्स में भी दर्ज है। read more
shravan chopkar in india book of recordsसेवा निवृत्त संयंत्र कर्मी श्री चोपकर का जन्म आजादी से ठीक दो साल पहले 15 अगस्त 1945 को हुआ। 1963 में उन्होंने बिलासपुर आईटीआई से मशीनिंग का डिप्लोमा किया। इसके बाद वे भिलाई इस्पात संयंत्र में मुलाजिम हो गए। 1966 में उन्होंने अपना पहला प्रयोग नारियल के खोल पर किया। हैक-सॉ ब्लेड को मशीनिंग कर उन्होंने अपनी जरूरत के औजार बनाए और काम शुरू कर दिया। उन्होंने सूखे नारियल पर बारीक झिरिया काटीं और वहीं से उसके भीतर का सूखा हुआ हिस्सा बाहर निकाल दिया। झिरियां ऐसे काटी गर्इं कि नारियल साबुत ही रहा पर उसके भीतर चारों तरफ से झांका जा सकता था। फिर उन्होंने एक सिंगल पीस लकड़ी की लालटेन बनाई और इसे उसके भीतर शीशे की जगह फिट कर दिया। जब इसके भीतर बल्ब जलता तो इसकी सुन्दरता देखते ही बनती।
नारियल के खोल से ही उन्होंने बैंगल बाक्स, गुलदान आदि भी बनाए। नारियल के खोल से ही उन्होंने फुल हेलमेट भी बनाया। इसके साथ ही वे लकड़ी पर भी काम करते गए। एक टुकड़ा लकड़ी उनके लिए एक ऐसी वस्तु बन गई जिसमें उनकी कल्पना विभिन्न आकृतियां देखने लगीं। फिर शुरू हुआ इन आकृतियों को मूर्त रूप देने का कार्य। यह सब इतना आसान भी नहीं था। लकड़ी के एक टुकड़े पर जंजीर की कड़ियों की कल्पना करना। फिर कड़ियों को बचाते हुए शेष लकड़ी को तराश कर निकाल देना समय और श्रमसाध्य था। पर उन्होंने यह किया और इतनी बारीकी से किया कि जल्द ही उनका मास्टर पीस भी सामने आ गया। यह थी 102 फीट की एक जंजीर जिसकी किसी भी कड़ी को काटा और जोड़ा नहीं गया था। लगभग 10 किलो लकड़ी को तराश कर बनाई गई इस जंजीर का वजन लगभग 5 किलो है। इसका इस्तेमाल तोरण की तरह, परदे की तरह भी किया जा सकता है।
इसे मानते हैं मास्टरपीस
श्रवण चोपकर आज 70 साल के हैं। वे अब भी काम कर रहे हैं पर घर में अब जगह नहीं रही। उन्होंने एक ही पीस लकड़ी को तराश कर एक ऐसा ढांचा बनाया है जिसे मामूली छेड़खानी से चुटकियों में मंदिर से मस्जिद, मस्जिद से गुरुद्वारा और गुरुद्वारे से चर्च का रूप दिया जा सकता है। वे इसे अपना मास्टर पीस मानते हैं और इसे देश के राष्ट्रपति को भेंट करना चाहते हैं।
विदेश में अच्छी कीमत
श्री चोपकर कहते हैं कि इस कला के यहां कद्रदान तो हैं किन्तु इसकी सही कीमत विदेशों में ही लग सकती है। इसकी लागत का बड़ा हिस्सा श्रम है। इसे आजीविका के तौर पर भी अपनाया जा सकता है। लोगों को प्रेरित करने के लिए ही वे इसकी प्रदर्शनियां लगाया करते हैं।

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