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नवनिर्माण संगीत की सतत प्रक्रिया: डॉ सत्यशील

Jan 8, 2017

dr-satyasheel-deshpandeyदुर्ग। संगीत के महारथी खयाल गायक डॉ सत्यशील देशपाण्डे शास्त्रीय ने ”जड़े- (संदर्भ संगीत घरानों की सार्थकता एवं योगदान विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा कि – मैं यहाँ जिस संगीत की बात कर रहा हूं उसने विगत सौ सवा सौ सालों में उत्तर हिन्दुस्तानी गायन पद्धति में जड़ पकड़ी है। उत्तर भारतीय संगीत के ‘घरानेÓ विशिष्ट एवं विभिन्न सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोणों का कम से कम तीन पीढिय़ों में पाया जाने वाला सतत सिलसिला होता है। हर घराने की बढ़त के अपने निजी कायदे-कानून होते हैं।
डॉ देशपाण्डेय शासकीय डॉ वा.वा. पाटणकर कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय में ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत: समय और समाज की धारा के आधुनिक परिप्रेक्ष्य मेंÓ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संगीत के आगरा, जयपुर, किराना यह सभी घराने अपने परम उत्कर्ष पर थे हर घराने की गायन परम्परा का अलगपन दूसरे से बहुत स्पष्ट है। पारंपरिक कला मूल्य अमिट है। सब पारंपारिक कला मूल्यों के अनोखे और विभिन्न कलात्मक उपयोगों से परम्पराएँ बनती है और इन्हीं मूल्यों की पुनर्रचना से परम्पराएँ प्रवाहित रहती है और किसी दूसरी परम्परा के प्रवाह से जुड़ भी जाती है। इसे ही नव निर्माण समझा जाता है।
डॉ0 स्मिता सहस्त्रबुद्धे ने राग समय सिद्धान्त की उपादेयता विषय पर शोध पत्र का वाचन प्रस्तुत किया राग और रस का घनिष्ठ संबंध है राग स्वरों से बनते है रसों की सृष्टि मूलत: स्वरों पर निर्भर करती है।
विश्व भारती विश्वविद्यालय शांति निकेतन से आयी डॉ0 इशिता चक्रवर्ती ने कल्चरिंग सिंगिंग वाइस पर अपने शोधपत्र का वाचन प्रस्तुत किया।
डी0बी0 गल्र्स महाविद्यालय से नृत्य की सहायक प्राध्यापक डॉ0 स्वप्निल करमहे ने कत्थक का सौन्दर्य पक्ष विषय पर अपना शोधपत्र का वाचन प्रस्तुत किया। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय से आये श्री हिमांशु ने ग्वालियर घराने की नाद परम्परा विषय पर शोधपत्र का वाचन प्रस्तुत किया।
समापन सत्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो जयंत खोत ने ग्वालियर घराने के जयदेव की अष्टपदि और टप्पा के विषय में प्रस्तुति दी। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के प्रो0 मुकुन्द भाले ने तबले की परम्परा एवं सौन्दर्य पक्ष पर विचार प्रस्तुत किये तथा कहा कि तबले की अपनी भाषा है जिसे समझने में कठिनाई भी होती है। तबला उतना ही पुराना है जितना संगीत। उन्होनें अपनी प्रस्तुति के माध्यम से तबला वादन की कला को प्रस्तुत किया।
समापन समारोह के अवसर पर मुख्यअतिथि की आसंदी से बोलते हुए प्रो0 मुकुन्द भाले ने कहा कि इस तरह की संगोष्ठियाँ विषय को जीवन्त करती है तथा हमें सिखलाती है।
समापन समारोह में जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष श्रीमती गायत्री वर्मा ने अपने उद्बोधन में संगीत की सुधीर्घ परम्परा को बनाये रखने के लिये किये जा रहे सेमीनार को मिल का पत्थर बताया। संगोष्ठी का संचालन संगीत विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ मिलिन्द अमृतफले ने किया। कार्यक्रम के अंत में प्रतिभागियों को प्रमाण-पत्र वितरित किये गये। कार्यक्रम में विभिन्न प्रांतो से आये प्राध्यापक, विद्यार्थी तथा स्थानीय पत्रकारगण बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

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