भिलाई। क्रॉनिक किडनी डिजीज (सीकेडी) के लक्षण काफी देर से ही सामने आते हैं। इसे हम किडनी फेल हो जाना भी कहते हैं। किडनी खराब होने की प्रक्रिया एक बेहद धीरे चलने वाली प्रक्रिया है जो महीनों का सालों खामोशी से चल सकती है। इस दौरान कुछ लक्षण उभरने लगते हैं जिन्हें पहचानना जरूरी है। किडनी को हुई क्षति की भरपाई नहीं होती इसलिए सुरक्षा ही सर्वोत्तम है। अन्यथा रोगी की जान को खतरा हो सकता है। उक्त बातें हाइटेक सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल के नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ प्रेमराज देबता ने कहीं।
डॉ देबता ने बताया कि सीकेडी के मरीजों में लक्षण स्थिति गंभीर होने के बाद ही सामने आते हैं। इसमें भूख नहीं लगना, उलटियां होना, चक्कर आना, सांस फूलना, थकान एवं कमजोरी, पैर के पंजों एवं टखनों में सूजन जैसे लक्षण हो सकते हैं। ऐसे रोगियों को उच्च रक्तचाप की भी शिकायत होती है जिसे नियंत्रित करना काफी मुश्किल होता है। ऐसे मरीजों का चेहरा सूजा-सूजा सा लगता है, खुजली होती है तथा किसी भी काम में मन नहीं लगता।
क्रॉनिक किडनी डिजीज के पीछे कई कारण हो सकते हैं। डायबिटीज इसका सबसे बड़ा कारण है। हाइपरटेंशन या उच्च रक्तचाप इसका दूसरा सबसे बड़ा कारण है। इसके अन्य कारणों में क्रोनिक ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस: इस प्रकार के किडनी के रोग में चेहरे तथा हाथों में सूजन आ जाती है और दोनों किडनी धीरे-धीरे काम करना बंद कर देती है। इंटरस्टीशियलनेफ्राइटिस भी इसका एक कारण है। पॉलीसिस्टिक किडनी डिजीज मे दोनों किडनियों में छोटे-छोटे बुलबुले बन जाते हैं जो आम तौर पर वंशानुगत होती है। इसके अलावा बार-बार मूत्र संक्रमण (यूटीआई), मूत्र के प्रवाह मे रुकावट आना भी इसका कारण हो सकते हैं। लगातार दर्द निवारक दवाइयों का सेवन भी इस खतरे को बढ़ा देता है।
सीकेडी का इलाज :
सीकेडी में हो चुके नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती। सीकेडी होने पर नियमित रूप से नेफ्रोलॉजिस्ट के सम्पर्क में रहना जरूरी होता है। रोग बढ़कर ईएसआरडी (एंड स्टेज रीनल डिजीज) में तब्दील हो गया तो फिर डायलिसिस ही एकमात्र उपाय रह जाता है। डायलिसिस दो प्रकार से किया जा सकता है – हीमोडायलिसिस या पेरीटोनियल डायलिसिस। अंतिम विकल्प गुर्दा प्रत्यारोपण या किडनी ट्रांसप्लांट का है। किडनी ब्रेन डेड (मस्तिष्कीय मृत्यु) रोगी अथवा जीवित दानदाता से प्राप्त किया जाता है।
ऐसे करें बचाव :
सीकेडी के लक्षण चूंकि रोग के काफी बढ़ जाने के बाद ही उभरते हैं इसलिए हाईरिस्क मरीजों को नियमित रूप से अपनी किडनी की जांच करवाते रहना चाहिए। समय पर पता लगने पर किडनियों को बचाने के आवश्यक उपाय किये जा सकते हैं। डायबिटीज एवं रक्तचाप को नियंत्रण में रखना जरूरी है साथ ही नियमित रूप से मूत्र की जांच करवाते रहना चाहिए। अपना डाक्टर खुद बनने से बचना चाहिए और अपनी मर्जी से दर्द निवारक औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिए। धूम्रपान से परहेज करना चाहिए। स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन एवं कसरत से अपने वजन को भी नियंत्रण में रखना चाहिए।