जगदलपुर। शराब हमेशा से आदिवासी संस्कृति का हिस्सा रही है. बस्तर में सल्फी, ताड़ी, महुआ, छिंदरस सभी स्थानीय शराब में शामिल हैं. इनमें से सल्फी का विशेष महत्व है. कहते हैं जिसके घर सल्फी का एक पेड़ होता है, उसे कभी नगदी का अभाव नहीं होता. यही कारण है कि बस्तर के आदिवासी समाज में विवाह के दौरान कन्या सल्फी का पौधा लेकर आती है. सल्फी को बस्तर का बीयर भी कहा जाता है.
सल्फी का वैज्ञानिक नाम कारयोटा यूरेंस है. इसका पेड़ करीब 40 फीट ऊंचा होता है. पेड़ जब 8 साल का हो जाता है तो उससे रस निकाला जाता है. इसके लिए पेड़ पर जमीन से काफी ऊपर चीरा लगाकर चुक्की लगा दी जाती है. इसके नीचे एक मटका लटका दिया जाता है. चुक्की से होकर रस मटके में इकट्ठा होता है जिसे बड़े चाव से पिया जाता है.
ताजा सल्फी कुछ-कुछ नारियल पानी के स्वाद का होता है. यह शरीर को ठंडा करने के साथ ही हल्का सा नशा भी करता है. इसलिए इसे बस्तर बीयर कहते हैं. पर जैसे जैसे दिन चढ़ता जाता है यह खट्टा होने लगता है और तेज नशा करता है. बासी सल्फी में खमीर उठ जाता है और यह पीने के योग्य नहीं रहता.
सल्फी का रस औषधीय गुणों से भरपूर होता है. यह पाचन तंत्र को दुरुस्त रखता है. कुछ लोगों का मानना है कि इससे किडनी स्टोन निकल जाता है. जिसके भी घर सल्फी का पेड़ होता है वह इसका रस गांव के हाट बाजार में बेचकर अच्छी खासी कमाई कर लेता है. पर्यटकों सल्फी का रस 40 से 50 रुपये लीटर तक खरीद लेते हैं.
मान्यता है कि जिसके घर संतान नही, वह सल्फी का वृक्ष लगाकर उसे बच्चे की तरह बड़ा करते हैं, जब यह बच्चा बड़ा हो जाता है, तो आमदनी का जरिया बनता है। सल्फी के पेड़ से रस निकालने के भी नियम हैं। रस निकालने का काम किसी खास व्यक्ति को ही दिया जाता है। रस निकालने से पहले वह देवी देवता की पूजा करता है, फिर देवताओं की अनुमति से रस निकालता है।
सल्फी को लगी अजब बीमारी
एक समय में चर्चा थी कि छत्तीसगढ़ सरकार गोवा की फेनी की तरफ इसकी ब्रांडिंग करके बाजार में उतारेगी. पर अब आलम यह है कि बस्तर की संस्कृति का हिस्सा माना जाने वाला सल्फी का पेड़ विलुप्त भी हो सकता है. बस्तर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को एक शोध में पता चला है कि ऑक्सीस्पोरम फिजियोरियम नाम के एक फंगस की वजह से बस्तर में सल्फी के पेड़ तेजी से सूख रहे हैं. इसपर विशेष कार्ययोजना बनकर काम करने की जरूरत है. तभी सल्फी के पेड़ों को बचाया जा सकेगा.
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