नई दिल्ली। गेहूं का किसी भी रूप में सेवन बंद कर देने से न केवल आपका वजन कम हो सकता है बल्कि आपकी डायबिटीज की समस्या भी नियंत्रित हो सकती है। जिन देशों में लोग गेहूं का सेवन नहीं करते, वहां मोटापा भी नहीं के बराबर है। यह कहना है अमेरिका के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ विलियम डेविस का। अपनी पुस्तक ‘व्हीट बेली’ (गेहूं तोंद) में वे लिखते हैं कि कमर के आसपास चर्बी जमा होने, एलडीएल कोलेस्ट्राल तथा रक्त शर्करा बढ़ाने में गेहूं का हाथ है।डॉ डेविस बताते हैं कि जब उन्हें अपनी तोंद को नोटिस किया तो उन्होंने अपने घटते ऊर्जा स्तर पर भी ध्यान दिया। उन्होंने गेहूं से बने उत्पादों को इसके लिए जिम्मेदार पाया। उन्होंने गेहूं की बजाय चावल का सेवन प्रारंभ किया तथा अपने डायबीटिक पेशेंट्स को भी ऐसा ही करने की सलाह दी। तीन माह बाद न केवल ऐसे मरीजों का वजन कम हो चुका था बल्कि ब्लड शुगर लेवल भी नार्मल हो गया था। इसके साथ ही सबका ऊर्जा स्तर बढ़ गया था।
डायबिटीज पर अपनी पुस्तक में डॉ डेविस बताते हैं कि हमारा ध्यान गेहूं की तरफ कभी गया ही नहीं। हम हृदयरोगियों का इलाज कर देते थे और जल्द ही वे फिर लौट आते थे। 1995 में जब अच्छे से अच्छा इलाज कराने के बावजूद उनकी माता का निधन हृदयाघात से हो गया तो उन्होंने डायट को गंभीरता से लिया। 15 साल उन्होंने इसीमें खर्च कर दिये। उन्होंने पाया कि हृदय रोगों का गेहूं से गहरा रिश्ता है। शायद यही वजह है कि गेहूं का सेवन नहीं करने वाले पश्चिमी देशों में लोग छरहरे और ज्यादा तंदुरुस्त होते हैं।
डॉ डेविस बताते हैं कि अकेला गेहूं ही ऐसा है जिसमें अम्लोपेक्टिन-ए पाया जाता है। यह एलडीएल को सक्रिय कर देता है। गेहूं में बहुत अधिक मात्रा में ग्लैडिन पाया जाता है। यह एक प्रोटीन है जो भूख बढ़ाने का काम करती है। इसके चलते व्यक्ति 400 कैलोरी तक ज्यादा खा जाता है। ग्लैडिन में ओपिएट के गुण होते हैं जिसके कारण गेहूं खाने वालों को इसकी लत लग जाती है।
डॉ डेविस बताते हैं कि 1970-80 के दशक में गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के लिए कई प्रयोग किये गये। इससे गेहूं भीतर से काफी बदल गया। गेहंू छोटी और मोटी होने लगी जिसमें ग्लैडिन की मात्रा भी बहुत अधिक हो गई। अबका गेहूं 50 साल पहले के गेहूं के जैसा बिल्कुल भी नहीं है।